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________________ समाज और संस्कृति रूप से जान लिया है । किसी भी पदार्थ को पूर्ण रूप से जानने का सामर्थ्य, केवल ज्ञान के अतिरिक्त किसी भी ज्ञान में नहीं है । अतः केवल ज्ञान, ज्ञान का पूर्ण विकास है । वह अनन्त है, इसीलिए उसमें अनन्त को जानने की शक्ति है । जब एक भक्त अपने प्रभु की स्तुति करता है, तब वह उसके शरीर की नहीं, उसके गुणों की स्तुति करता है । जिन - शासन में कहा गया है, कि तीर्थकर के शरीर की स्तुति को तीर्थंकर की स्तुति नहीं कहा जा सकता । तीर्थंकर के गुणों की स्तुति को ही तीर्थंकर की स्तुति कहा जाता है । वस्तुतः स्तुति शरीर की नहीं होती, गुणों की ही होती है । स्तुतिकार जब अपने प्रभु की स्तुति करता है, तब वह कभी भेद-दृष्टि से करता है और कभी अभेद - दृष्टि से करता है । किसी भी गुणी का वर्णन करना, यह भेद दृष्टि है और गुणों का वर्णन करना यह अभेद दृष्टि है । गुणों की स्तुति में गुणी का स्तवन हो ही जाता है । परन्तु जब गुणी की महिमा अलग से वर्णन की जाती है, तब वहाँ भेद - दृष्टि ही समझना चाहिए । यथार्थ में जब गुणों का स्तवन कर लिया, तब गुणी की महिमा अलग से वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं होती । क्योंकि गुणों के स्तवन से गुणी का स्तवन अपने आप हो ही जाता है । किसी का नाम लेकर स्तवन करने का अर्थ होता है— व्यक्ति पूजा । यदि हम ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर का नाम लेकर स्तुति करते हैं, तो यह स्तुति व्यक्ति - पूजा कहलाती है, परन्तु जब किसी व्यक्ति का नाम न लेकर उसके गुणों का कथन किया जाता है, तो उसमें समस्त व्यक्तियों का समावेश हो जाता है । व्यक्ति को छोड़कर जैन परम्परा के आचार्यों ने गुण- प्रधान स्तुति और नमस्कार को ही अधिक महत्व दिया है । इसलिए उन्होंने कहा है, कि अरिहन्त की स्तुति करने से अथवा अरिहन्त को नमस्कार करने से समस्त अरिहन्तों की स्तुति और नमस्कार हो जाता है । मैं अरिहन्त को नमस्कार करता हूँ । यहाँ अरिहन्त कहने से क्या हो गया, कि राग और द्वेष जिसने जीत लिया है, उस सबको नमस्कार हो गया, फिर भले ही वह आत्मा भूतकाल का हो, भविष्य काल का हो अथवा वर्तमान काल का हो । फिर भले ही वह किसी भी जाति, किसी भी देश का क्यों न हो । सिद्धान्त यह है, कि गुणों की स्तुति करने से गुणी की स्तुति स्वयं ही हो जाती है । अरिहन्त व्यक्ति - विशेष नहीं होता, बल्कि वह तो आत्मा का स्वरूप - विशेष है । आत्मा - स्वरूप को नमस्कार १७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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