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समाज और संस्कृति
ही कुछ सुधरे हुए रूप में हों, किन्तु इस दृष्टि से मनुष्य के जीवन को पशु-जीवन से ऊँचा नहीं कहा जा सकता । पशु में बुद्धि भी रहती है, किन्तु वह उसका प्रयोग और उपयोग शरीर की पूर्ति तक ही कर पाता है । किसी भी पशु-पक्षी के मन में अपने कल्याण की और विश्व-कल्याण की उच्चतम भावना प्रायः उत्पन्न नहीं हो सकती । लेकिन आप देखेंगे, कि मनुष्य-मनुष्य है । वह पशु नहीं है, पक्षी नहीं है, क्योंकि उनके जो विचार हैं, वे प्रायः अपने तक ही सीमित रहते हैं, जबकि मनुष्य के विचार, केवल अपने तक ही सीमित न रह कर, अपने परिवार, अपने समाज, अपने राष्ट्र और समग्र विश्व में भी फैल सकते हैं । अब रही आकृति की बात, यह तो पिण्ड की आकृति है । आत्मा की अपनी कोई स्थूल आकृति नहीं होती । कोरे आकार और आकृति से काम नहीं चलता, आकृति के साथ प्रकृति भी सुन्दर होनी चाहिए, तभी जीवन का विकास सुन्दरता के साथ हो सकेगा ।
भारतीय चिन्तन, भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्परा आपके समक्ष जीवन का एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है । भारतीय धर्म और दर्शन शरीर की बात नहीं करता, वह तो आत्मा की बात करता है । शरीर के बल की अपेक्षा वह मन के बल को ही अधिक महत्व देता है । शरीर की शक्ति का अपने में तब तक कोई महत्व नहीं होता, जब तक कि अन्तर् आत्मा में बल न हो । भारतीय संस्कृति एक अध्यात्मवादी संस्कृति है, इसलिए शरीर के रंग-रूप का उसकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं है । उसकी दृष्टि में महत्व है, केवल आत्मा का
और उसके स्व-स्व रूप का । शरीर सुन्दर हो और आत्मा मलिन हो, इस प्रकार के जीवन से कोई विशेष लाभ नहीं होता । तन उजला हो
और मन मलिन हो, तो यथार्थ में उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता । जब तक मनुष्य की दृष्टि उसके शरीर पर केन्द्रित है, तब तक वह अपने जीवन का विकास नहीं कर सकता । आत्म-भाव को न भूलना ही अध्यात्म-दृष्टि है । मनुष्य कहीं पर भी जाए, वह कहीं पर भी रहे और कुछ भी क्यों न करे, परन्तु उसे अपनी आत्मा को कभी नहीं भूलना चाहिए । यह दृष्टिकोण ही भारतीय संस्कृति का यथार्थवादी दृष्टिकोण है । तन को भूलने में कुछ आपत्ति नहीं है, किन्तु आत्मा को भूलना, मनुष्य-जीवन की सबसे भयंकर भूल होती है ।
मुझे एक बहुत ही सुन्दर प्रसंग याद आ रहा है । एक बार
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