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समाज और संस्कृति
मैं साधना कहता हूँ । पर वह विशुद्धि आन्तरिक होनी चाहिए, केवल बाह्य ही नहीं । बाह्य विशुद्धि हमने हजारों, लाखों, करोड़ों जन्मों तक की, किन्तु उसका कोई भी शुभ परिणाम हमारे जीवन में दृष्टिगोचर नहीं होता । तन की शुद्धि का अपने आप में कुछ अर्थ अवश्य है, पर वही सब कुछ नहीं है । किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना करने के लिए, तन की विशुद्धि की अपेक्षा मन की विशुद्धि ही अधिक उपयोगी एवं अधिक अर्थकारी है । तन की विशुद्धि होने पर भी यदि मन की विशुद्धि नहीं है, तो जीवन के कल्याण से हम बहुत दूर हैं । इसके विपरीत तन की विशुद्धि न होने पर भी यदि मन की विशुद्धि परिपूर्ण है, तो हम अपनी साधना के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं । अध्यात्म साधनाओं का केन्द्र बिन्दु और मूल-बिन्दु तन नहीं, मन है । मानव के इस स्थूल-देह में उसका मेरु-दण्ड केन्द्र माना जाता है, जिससे शरीर की समग्र नसों का सम्बन्ध जुड़ा रहता है । यदि मेरु-दण्ड स्वस्थ है, प्राणवान है और वह सीधा तना रहता है, तो सम्पूर्ण शरीर में एक अजीब स्फूर्ति और जागृति उत्पन्न हो जाती है । यदि मेरु-दण्ड में किसी प्रकार की गड़बड़ी पैदा हो गई है, तो जीवन रहते भी शरीर बेकार हो जाता है । यही बात मन के सम्बन्ध में भी है। हमारी जितनी भी इन्द्रियाँ हैं, उनका सम्बन्ध मन से है । आँख रूप को अवश्य देखती है, पर रूप का ज्ञान तभी होता है, जब आँख के साथ मन का संयोग रहता है । कान शब्दों को सुनते हैं, किन्तु शब्द-ज्ञान तभी होता है, जबकि कानों का मन से सम्बन्ध होता है । रसना रस को ग्रहण करती है, परन्तु रस का ज्ञान तभी होता है, जबकि रसना के साथ मन का संयोग रहता है । घ्राण गन्ध को ग्रहण करता है, पर गन्ध का ज्ञान तभी होता है, जबकि घ्राण का सम्बन्ध मन से होता है । स्पर्शन स्पर्श करती है, पर स्पर्श का ज्ञान तभी होता है, जबकि स्पर्शन का सम्बन्ध मन के साथ होता है । मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हुए भी उन-उन विषयों का ज्ञान तभी करती हैं,' जबकि इन्द्रियों के साथ मन का योग्य का सम्बन्ध हो जाता है ।
मैं आपसे जीवन-विशुद्धि की बात कह रहा था । जीवन की विशुद्धि का आधार तन नहीं, मन है । मन की विशुद्धि ही समस्त साधनाओं का मेरु-दण्ड कहा जा सकता है किन्तु विवेक-विकल जन, मन की विशुद्धि को भूलकर एकमात्र तन की विशुद्धि को ही अपने धर्म का आधार मान बैठते हैं । एक बार की बात है, मैं किसी गाँव में ठहरा हुआ था । गाँव छोटा था, उसमें ठहरने के लिए अच्छा स्थान न मिला । अतः गाँव
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