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मनुष्य स्वयं दिव्य है
भारतीय संस्कृति में जितना अधिक महत्त्व संयम और चारित्र को दिया गया है, उतना अन्य किसी गुण को नहीं । संयम के अभाव में मनुष्य का जीवन एक ऐसा जीवन बन जाता है, जिसका घर और बाहर कहीं पर भी स्वागत और सत्कार नहीं होता है । मनुष्य की बुद्धि एक बार रास्ता भूल जाए, तो अनेक रास्तों पर वह इधर-उधर भटकती रहती है । विचार के बदलने पर जीवन का रुख ही बदल जाता है । जीवन को सुन्दर बनाने के लिए, शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य की आवश्यकता है और यह स्वस्थता बिना संयम के नहीं आ सकती । यदि मनुष्य को सुन्दर ढंग से जीवन व्यतीत करना है, तो उसे आज नहीं तो कल, संयमी जीवन स्वीकार करना ही होगा । हमारे जीवन में जितना भी कालुष्य है, उस सबका मूलाधार असंयम और चारित्र-हीनता ही है । यह याद रखना चाहिए, कि चरित्र बल तर्क-बल के ऊपर है । विद्वान् से संयम-शील आत्मा महान होता है । तपस्या का स्थान अध्ययन से ऊँचा है । चरित्र-बल ही आत्म-बल है । चरित्रशुद्धि से आत्मा गरीयसी होती है । मनोविज्ञान में जिसे इच्छा-शक्ति कहा जाता है, वह आत्म-बल का ही दूसरा नाम है । संयम से अपनी प्रवृत्तियों पर विजय पाने के लिए इच्छुक व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है, कि उसमें केवल इच्छा-शक्ति की दृढ़ता ही न हो, बल्कि सफल होने का पूर्ण विश्वास भी हो । आत्म-विश्वास संयमी जीवन के लिए आवश्यक है । जिस व्यक्ति का अपने आप पर ही विश्वास नहीं है, वह भला संयम का पालन कैसे करेगा ? शास्त्रकारों ने मनुष्य के मन को एक युद्ध क्षेत्र माना है । मन के क्षेत्र में आसुरी और दैवी वृत्तियों का द्वन्द्व एवं संघर्ष निरन्तर चलता रहा है । कुछ लोग कहा करते हैं, कि जीवन के दोषों को दूर नहीं किया जा सकता । यदि यही बात है, तो फिर किसी भी प्रकार की साधना जीवन में नहीं की जा सकती । जब किसी व्यक्ति को यही विश्वास नहीं है, कि मैं अपनी कमजोरी को दूर कर सकता हूँ, तब फिर उसके लिए साधना का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता । साधना प्रारम्भ करने से पूर्व साधक को अपने पर पूरा विश्वास कर लेना चाहिए । मेरे विचार में आत्म-संयम के बिना, जीवन सुन्दर नहीं बन सकता । परन्तु
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