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________________ शक्ति ही जीवन है किया जा सकता । दान पर प्राचीन शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ कहा गया है । उसके अध्ययन का और मनन करने का मुझे अवसर मिला है । मैं दान को भी एक शक्ति मानता हूँ । शक्ति के बिना दान नहीं किया जा सकता । आप प्रश्न कर सकते हैं, कि दान देने में शक्ति की क्या आवश्यकता है ? उत्तर में मेरा कहना है, कि शक्तिहीन मनुष्य दान नहीं कर सकता । शक्ति सम्पन्न मनुष्य ही दान कर सकता है । दान क्या है ? अपने मन की ममता पर विजय प्राप्त करना ही दान है । मन की ममता पर विजय प्राप्त करना, बिना शक्ति के सम्भव नहीं है । ममता पर विजय प्राप्त करना, ममता को जीतना बड़ी बहादुरी का काम है । इस कार्य को आप साधारण न समझें । जिस मनुष्य के मन की ममता नहीं मिटी है, मैं पूछता हूँ आपसे, कि क्या वह दान कर सकता है ? यदि आप समझदारी के साथ उत्तर देंगे तो आपका उत्तर यही होगा, कि नहीं कर सकता । धन एक परिग्रह है, उसका त्याग करना ही दान है । परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए, कि धन ही परिग्रह नहीं है, जन, परिजन और जितने भी बाह्य साधन हैं, उन सबका संग्रह करना भी परिग्रह ही है । बाह्य साधन ही नहीं, जैन दर्शन तो आन्तरिक साधनों को भी परिग्रह मानता है । जैसे धन का परिग्रह होता है, वैसे ही यश और प्रतिष्ठा का परिग्रह भी होता है । मनुष्य यश प्राप्त कर ले और उस यश का ठीक रूप से बंटवारा न करे, तो वह परिग्रह ही है । परिग्रह बहुत प्रकार के होते हैं, जो ज्ञान आचरण में न उतरे अथवा जो ज्ञान अहंकार को उत्पन्न करे, वह भी एक परिग्रह ही है । शास्त्र - ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, वीतराग की वाणी यदि मनुष्य के मन के अहंकार को बढ़ाती है, तो उसे भी परिग्रह ही कहा जाता है । त्याग और तपस्या जीवन - शोधन के लिए किये जाते हैं, परन्तु त्याग करके, त्याग का अहंकार जागृत हो गया अथवा तपस्या करके तप का अहंकार हो गया, तो वह भी एक परिग्रह ही है । शक्ति भले ही वह किसी भी प्रकार की क्यों न हो, यदि उसका प्रयोग दूसरे के विकास में नहीं होता है, दूसरे के विनाश में ही उसका प्रयोग और उपयोग किया जाता है, तो वह भी एक प्रकार का परिग्रह ही है । जीवन - विशुद्धि और जीवन-शोधन जिस किसी भी साधन से सम्पन्न होता है, वह सब धर्म है । भर्तृहरि अपने युग के एक प्रसिद्ध सम्राट थे । राज्य का संचालन करते हुए उन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया था । Jain Education International For Private & Personal Use Only १३६ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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