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समाज और संस्कृति
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का समादर किया गया है । मनुष्य तन से मनुष्य होकर भी जब तक मन से मनुष्य नहीं बनेगा, तब तक उसके जीवन का उत्थान और कल्याण नहीं हो सकेगा । आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, और चाहे कुछ भी क्यों न सोचें, किन्तु आपको जीवन-रहस्य की उपलब्धि तब तक नहीं हो सकती, जब तक आपका जीवन त्यागमय और संयममय न हो जाए । जीवन का सार भोग नहीं, योग है, जीवन का सार हिंसा नहीं, अहिंसा है, जीवन का सार एकान्त नहीं, अनेकान्त है तथा जीवन का सार संग्रह नहीं, परित्याग है । मैं आपसे यह कह रहा था, कि जीवन को संयमशील बनाने के लिए और उसे भोग के कीचड़ में से निकाल कर संयम की सुन्दर भूमि पर लाने के लिए अनित्य भावना के चिन्तन करने की आवश्यकता है। जैन-धर्म में द्वादश भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण किया गया है, जिसमें सबसे पहली भावना अनित्य-भावना है । अनित्य-भावना का अभिप्राय यही है, कि इस तथ्य को सोचो और समझो, कि यह जीवन परिवर्तनशील है, यह जीवन क्षणभंगुर है, यह जीवन अनित्य है । विश्व की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर और अनित्य है । इस प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु में अनित्य भावना का चिन्तन करने से वैराग्य की उपलब्धि होती है । वैराग्य की उपलब्धि होने पर जीवन संयमी और त्यागमय बन जाता है । संयमी जीवन का समादर इस जगत के जन ही नहीं, सुर-लोक से सुर भी उसका आदर और सत्कार करते हैं ।
एक बार भगवान महावीर का समवसरण राजगृह में लगा हुआ था, जिसमें देव और मनुष्य सब मिलकर उनकी धर्म-देशना सुन रहे थे । धर्म-सभा में एक देव आया और वह भी भगवान का उपदेश सुनने लगा । इसी समय मगध के सम्राट राजा श्रेणिक भी भगवान का उपदेश सुनने के लिए धर्म-सभा में आया और यथास्थान बैठ गया । संयोग की बात है, कि बैठते ही राजा श्रेणिक को छींक आ गई । छींक को सुनकर उस देव ने कहा-“जीते रहो महाराज !" इधर-उधर आस-पास में बैठे लोगों ने उस देव की इस बात को ध्यान से सुना । कुछ लोगों ने अपने मन में सोचा : सम्राट ने छींका है, इसीलिए इसने यह बात कही है । कहा जाता है, कि उसी समय राजगृही का क्रूर कसाई काल शौकरिक भी उधर से कहीं जा रहा था, उसे भी छींक आई और उसकी छींक को सुनकर देव ने कहा-“न जी, न मर ।" लोगों ने इस बात पर भी अपने मन में विचार किया, कि सम्राट की छींक पर इसने कुछ और कहा
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