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मानव जीवन की सफलता
प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होता है, उससे उसकी महानता का बोध होता है । मैं स्वयं भी पूर्वभारत की यात्रा से लौटते हुए कौशाम्बी गया था । वहाँ पर जो अनुसन्धान हो रहा है, उससे भविष्य में प्राचीन जैन इतिहास पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ने की सम्भावना है । आज कौशाम्बी एक खण्डहर के रूप में है, कभी यह एक वैभवशालिनी नगरी थी । परन्तु यह सब कुछ काल का परिवर्तन है । जिसका यहाँ पर विशेष प्रसंग नहीं है । यहाँ पर प्रसंग इतना ही है, कि कौशाम्बी नगरी की प्रवचन-सभा में भगवान महावीर ने राजकुमारी जयन्ती के प्रश्नों का उत्तर दिया था । भगवान महावीर ने कहा-"जयन्ती ! बलवान् होना भी अच्छा है और निर्बल होना भी अच्छा है ।" अभिप्राय क्या हुआ ? यह प्रश्न और उसका यह उत्तर दो कोटियों का स्पर्श कर गया है । सामान्यतः इसका अर्थ यह हुआ कि बलवान होना भी ठीक है और निर्बल होना भी ठीक है । राजकुमारी ने विनम्र भाव से कहा-“भंते ! दोनों में से एक उत्तर मिलना चाहिए, कि बलवान होना अच्छा है, या निर्बल होना अच्छा है । दोनों बातें कैसे घटित हो सकती हैं, कि बलवान होना भी अच्छा हो
और निर्बल होना भी अच्छा हो ।" भगवान ने कहा- "राजकुमारी ! बात यह है, कि यह प्रश्न जीवन का प्रश्न है और किस व्यक्ति का जीवन किस समय क्या करवट लेता है, वह उसके जीवन का अव्यक्त रहस्य है । शक्ति और बल अपने आपमें न अच्छे हैं और न बुरे हैं, किन्तु व्यक्ति की भावना और परिस्थिति ही उन्हें अच्छा बुरा बनाती है । शक्ति तो शक्ति है, बल तो बल है, उसे अच्छे काम में भी लगाया जा सकता है और बुरे काम में भी लगाया जा सकता है । शक्ति का एक उपयोग यह है, कि किसी अनाथ की रक्षा की जाए और शक्ति का दूसरा उपयोग यह भी है, कि किसी असहाय को घात लगाकर लूट भी लिया जाए । दूसरे के रक्षण में भी शक्ति का प्रयोग हो सकता है और दूसरे को लूटने में भी शक्ति का प्रयोग हो सकता है । दयाशील व्यक्ति की शक्ति स्व और पर के संरक्षण में काम आती है और क्रूर व्यक्ति की शक्ति दूसरे के उत्पीड़न में काम आती है । दयावान व्यक्ति में और क्रूर व्यक्ति में शक्ति, शक्ति रूप में है, बल, बल रूप में है, किन्तु उसके प्रयोग की विधि और उद्देश्य में महान् अन्तर है । शक्ति से आँसू पोंछे भी जा सकते हैं और शक्ति से आँसू बहाए भी जा सकते हैं । बल से परिवार, समाज और राष्ट्र का रक्षण भी हो सकता है, तथा बल से
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