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________________ पर्युषण-प्रवचन शरीर तो सोने के सिंहासन पर शोभा पा रहा है, राजा-रईसों का अभिवादन ले रहा है, नजराना स्वीकार कर रहा है और उसकी आत्मा त्याग-विराग के सिंहासन पर विराजमान है, वह भगवान् नेमिनाथ की गोद में जा बैठा है । हाँ, तो सम्राट ने अपना आदेश प्रसारित करते हुए कहा-“मेरी दीक्षा के लिए रजोहरण, पात्र आदि की व्यवस्था कर सम्राट का अध्यादेश सुनते ही श्रीकृष्ण ने कहा-"हम इस गजेन्द्र को कच्चे धागे से बाँधना चाहते थे । इन सिंहासनों ने कोटि-कोटि मनुष्यों को अपने बन्धन में बाँधा, इन भोग-विलासों के प्रलोभन में लक्ष-लक्ष आत्माएँ फँस गईं । परन्तु सजग आत्मा को सोने के सिंहासन न बाँध सके । इस महादावानल को सुख साधनों के ऐश्वर्य एवं जयघोष के झंझावात बुझा नहीं सके । वह ज्वाला, जो एक बार प्रज्वलित हो चुकी थी, निरन्तर जलती रही । स्वर्ग और नरक साधक पर तभी तक शासन कर सकते हैं जब तक कि साधक आत्मभाव हृदय में न उतरा हो । संकल्प बल आत्मा में जब संकल्प-बल उबुद्ध हो जाता है, तो साधक भयानक अटवियों को, निर्जन वनों को निर्भयता से पार कर देता है । वह काँटों की नोंक पर भी हँसता हुआ चलता है । काँटे-कंकर उसके पथ को रोक नहीं सकते । जब कभी वह महलों से गुजरता है तो मुस्कराता चलता है और झोंपड़ियों में से गुजरता है तब भी मधुर मुस्कान के साथ गुजरता है । जय नाद के बीच से गुजरता है तो मन में कोई हर्ष नहीं होता और जब चारों ओर से गालियों की वर्षा होती है, तिरस्कार की बिजलियाँ कड़कती हैं, लोग अपमान कर रहें हैं, फिर उसके मन को विषाद की रेखा छू नहीं पाती । उसके ओष्ठ पर हर समय, हर स्थिति में मधुर मुस्कान अठखेलियाँ करती रहती हैं । दीक्षा हाँ, तो माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता से अनुमति प्राप्त करके गज सुकुमार साधना के पथ पर चल पड़ा । दीक्षित हो गया और उसी समय भगवान से आत्म-कल्याण का मार्ग पूछा और भगवान ने उस नवदीक्षित मुनि को आत्मकल्याण के लिए भिक्षु की १२ वीं पडिमा बताई । उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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