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________________ पर्युषण-प्रवचन किया, कंस के समाप्त होने पर ब्रजभूमि का एक बहुत बड़ा काँटा जरूर खत्म हो गया था । किन्तु उसके पीछे जरासन्ध जैसी शक्तियों से लोहा भी लेना पड़ा । जब जरासन्ध का आक्रमण हुआ तो श्रीकृष्ण ने सोचा कि ब्रज में रक्षा के साधन बहुत ही कम हैं, वहाँ से जरासन्ध के साथ युद्ध ठानना ठीक नहीं है, युद्ध के लिए सबसे पहली बात स्थान की देखी जाती है और जब उसमें ही कमी हो तो फिर आगे का क्या विचार करें इसलिए सबने निर्णय किया कि ब्रज को छोड़ देना चाहिए और कहीं दूर जाकर नया नगर बसाया जाना चाहिए । - मनुष्य को अपना बसाया छोटा-मोटा घरोंदा छोड़ने पर बहुत बड़ा दर्द और कष्ट का अनुभव होता है तो वहाँ के लोगों की क्या स्थिति हुई होगी । जब वे अपनी जन्म भूमि को छोड़कर चले होंगे । जिस जन्म - भूमि की मिट्टी में सहस्रों शताब्दियों से उनके पूर्वज खेलते आए थे, उस जन्म-भूमि का त्याग करना बहुत ही साहस का काम था । जन्म - भूमि तो स्वर्ग से भी अधिक प्यारी मानी जाती है जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी जरा सोचिए कि वे किस प्रकार जन्म भूमि से सौराष्ट्र की ओर चल दिए होंगे जहाँ उनके स्वागत का कोई प्रबन्ध नहीं था । उनका कहीं ठिकाना नहीं था, श्रीकृष्ण की इस कूच से एक महत्वपूर्ण बात यह प्रकट होती है कि जो अपने घरों से बाहर नहीं निकलता, और जो यह सोचता हो कि यहाँ से उड़ने पर दूसरी शाखा मिले या नहीं, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता, कभी विजय भी प्राप्त नहीं कर सकता । यादव जाति के सौराष्ट्र प्रस्थान से यह फलित हो गया कि जिस जाति और समाजों को अपने पुरुषार्थ और भाग्य पर विश्वास होता है कि कहीं भी जाए उसका पराक्रम और भाग्य दो पैरों की तरह सदा साथ रहेंगे, वह जाति चाहे छोटी ही हो अवश्य उन्नति करती है । समृद्धि और विकास की ओर बढ़ती है । जबकि - स्वदेशो भुवनत्रयम् मानने वाले एक छोटे से टुकड़े में सीमित रह जाते हैं । भारतवर्ष की श्रद्धा और भक्ति ने हमेशा ही यह माना है कि जहाँ राम के चरण टिक गए वहीं अयोध्या है । अर्थात् जहाँ पर हम विश्वास और साहस के साथ चलें । वहीं पर आनन्द और उल्लास तैयार है । Jain Education International ७२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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