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वैराग्य मूर्ति : गौतम कुमार
"आत्मा परमात्मा में कर्म ही का भेद है,
काट दे गर कर्म तो फिर भेद है न खेद है ।" आत्मा और परमात्मा में कर्म का ही भेद है । यदि आत्मा कर्म से विमुक्त हो गया है, तो वह परमात्मा ही है । एक दार्शनिक ने कहा
__ "पाश-बद्धो भवेदजीवः पाश-मुक्तस्तथा शिवः ।" जीव और शिव में क्या भेद है ? केवल पाश का. माया का और वासना का । जब तक यह आत्मा माया में बँधी है, जाल में बँधी है, तभी तक वह जीव है । और जब पाश से, माया से मुक्त हो जाती है, तब वही शिव बन जाती है । मुख्य बात है—कर्म, माया, पाश और बन्धन को तोड़ने की । पुराने जो कर्म हैं, उनमें कुछ कर्म प्रारब्ध हैं; वे अवश्य भोगने पड़ते हैं । इन्द्रियों को भोग भोगने पड़ते हैं । सुख और दुःख का भोग समभाव से भोगने पर कर्म नष्ट हो जाते हैं और विषम भाव से भोगने पर फिर बन्ध हो जाता है । बन्ध और निर्जरा प्रतिक्षण होते ही रहते हैं । कुछ कर्म सञ्चित होते हैं, जो अनन्त काल से एकत्रित होकर सत्ता में पड़े रहते हैं । जब वे प्रारब्ध हो जाते हैं तो उन्हें भोगा जाता है, अन्यथा ध्यान और ज्ञान के बल से उन सञ्चित कर्मों को प्रारब्ध में आने से पूर्व ही नष्ट कर दिया जाता है । कुछ कर्म क्रियमाण होते हैं, जो वर्तमान में किए जाते हैं । जैन दर्शन में कर्मों की चार स्थिति होती हैं—बन्ध, सत्ता, उदय और उदीर्णा । आत्मा से परमात्मा बनने का एक ही मार्ग है-संवर की साधना से नये कर्मों को रोका जाये, बद्ध कर्मों की निर्जरा की जाये और उदय में आये हुए कर्मों को समभाव से भोगा जाये । ___मैं आपसे राजकुमार गौतम की बात कह रहा था । गौतम ने संसार भी देखा था और फिर मोक्ष भी देख लिया । उसने भोग भी देखा और योग भी देखा । वह वासना और कामना की ज्वाला में भी जला और फिर यम, दम और संयम की साधना अनन्त शान्ति सुख और आनन्द को भी प्राप्त कर लिया । वह भोग से योग की ओर आया; अशान्ति से शान्ति की ओर आया; मृत्यु से अमृत की ओर आया; असत्य से सत्य की ओर आया । गौतम कुमार मृत्युञ्जयी महापुरुष के चरणों में आकर स्वयं भी मृत्युजयी हो गया । शाश्वत सुख में लीन हो गया । मोक्ष प्राप्त कर लिया ।
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