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________________ पर्युषण पर्व की आराधना थी । ज्यों ही उसने मुँह मारा उन पर उसका मुँह मधुरता से, मिठास से भर गया । वह वहीं जम कर रसपान करने लगा । उस रसपान में अपने दूसरे साथियों को सम्मिलित करने के लिए उसने आवाज लगाई । उसने कहा कि साथियो ! इधर-उधर कहाँ भटक रहे हो ? आओ, ऊपर आओ । मैंने तो अमृत का, मिठास का झरना प्राप्त कर लिया है । इसमें इतना आनन्द है, इतना रस है कि कुछ पूछो ही नहीं । यह आवाज उसके उस दूसरे साथी ने सुनी जो बेचारा अभी पत्तों तक ही पहुँच पाया था, पत्तों के बीच ही घूम रहा था । उसने उसके कहने पर पत्तों में मुँह मारा । पत्ते तो कड़वे थे ही, अतः मुँह कड़वाहट से भर गया । उसने पहले साथी से कहा- - "झूठे, मक्कार कहीं के, मजाक करता है तू मेरी ? तू कहता है कि यह वृक्ष अमृत का विराट् सागर है, माधुय का सागर है । कहाँ है वह मिठास ? यह तो कड़वा जहर है, मेरा तो सारा मुँह कड़वा हो गया । तू झूठ बकता है नालायक ! ऐसी हँसी नहीं किया करते साथियों से । ” अब तीसरा जो नीचे ही नीचे जड़ में ही घूम रहा था, पेड़ के मूल में ही चक्कर काट रहा था । उसने जब पहले साथी की आवाज सुनी कि यह वृक्ष अमृत का झरना है तो उसने भी मुँह मारा उस जड़ पर । आप जानते हैं कि पेड़ के मूल में मोटी-मोटी छाल होती है । ज्यों ही उसने मुँह मारा, उसका मुँह कड़वाहट से तो भरा ही पर वह कुचल भी गया उस छाल के कारण । अब उसे उसमें रस तो क्या मिलता, वह दन्त शून्य और हो गया । उसने कहा अपने पहले साथी से कि तुम कितने झूठे हो यह वृक्ष कड़वाहट से ही नहीं बल्कि कठोरता से भी भरा है और इसे अमृत का सागर बता रहे हो ? कैसे विश्वास कर लूँ तुम्हारी बात पर ? इस प्रकार दोनों वाक् युद्ध करने लगे । इन दोनों को लड़ते देख बीच वाला मकोड़ा बोला जिसने कि पत्तों में मुँह मारा था । उसने कहा – “तुम दोनों ही झूठे हो । क्यों झगड़ रहे हो ? यह वृक्ष न तो मीठा है और न कठोर । है तो मुलायम पर कड़वा अवश्य है । सही बात को क्यों नहीं समझते ? क्यों संघर्ष पर तुले हुए हो ?" तो मैं आपसे पूछूं कि वह चींटा, जो बहुत ऊँचाई पर चढ़ गया था और जिसने पके हुए मधुर फलों से सम्पर्क साध लिया था, वह जो कुछ भी कह रहा है, सच कह रहा है या झूठ ? और पत्तों का स्वाद लेने वाला वृक्ष को कड़वा जहर बता रहा है तो सब कह रहा है या झूठ ? और तीसरे बेचारे ने नीचे जड़ पर ही मुँह मार दिया Jain Education International ३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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