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पर्युषण-प्रवचन
जीवन और मौत की आसक्ति को भी तोड़ दो । न तो जीवन ही महत्त्वपूर्ण है और न मृत्यु का ही कोई महत्त्व है । जीवित रहना है तो कर्तव्य के लिए और मरना है तो भी कर्तव्य के लिए । इन दोनों के नीचे कर्तव्य की पृष्ठभूमि है । यदि आप मानवता की रक्षा करते हुए, परम-तत्व की शोध में सत्कर्म करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो आपको जीने का अधिकार है, पर यदि अपने आदर्शों की हत्या करके जी रहे हैं तो वह जीवन भी एक बोझ है । ऐसे जीवन की आसक्ति का कोई मूल्य नहीं । आदर्शों की रक्षा के लिए जीवित रहो और यदि उन आदर्शों के लिए मृत्यु को भी वरण करना पड़े, तो प्रसन्न-मुख से उसे स्वीकार करो ।
जीवन की बात आए तो मन प्रसन्नता से खिल उठे और मृत्यु की बात सुनकर चेहरा मुरझा जाये, यह हमारा दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए । यह जीवन-मरण तो खेल है । जब तक यह शरीर है, मृत्यु अवश्यम्भावी है, फिर डरना किससे ? जिन्दा रहना आत्मा का धर्म है और मृत्यु शरीर का धर्म है । इससे तुम्हारे मन में कोई क्षोभ नहीं आना चाहिए ।
जीवन का सही दृष्टिकोण यही है । जब लोभ और आसक्ति टूटती है, तभी मनुष्य के जीवन का निर्माण होता है ।
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