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आवश्यकता और तृष्णा
प्रत्येक देहधारी प्राणी की अपनी कुछ आवश्यकताएँ तो होती ही हैं । यदि वह गृहस्थ है, तब भी शरीर - पोषण के लिए उसकी कुछ आवश्यकताएँ हैं और यदि वह मुनि है, तब भी संयम - निर्वाह के लिए उसकी कुछ आवश्यकताएँ हैं । जब तक जीवन है, जब तक यह शरीर है और जब तक इस संसार में हम रहेंगे, तब तक अपने उत्तरदायित्वों की सुरक्षा और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयत्न भी करना होगा ।
यदि शरीर को भूख लगती है और वह रोटी माँगता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है । समय पर उसे रोटी भी चाहिए, पानी भी चाहिए, और आवश्यकतानुसार वस्त्र भी चाहिए । यह ठीक है कि मुनि - जीवन और गृहस्थ जीवन की भूमिका के अनुसार इन आवश्यकताओं में भी अन्तर आ जाता है । दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएँ और सीमाएँ हैं । दोनों अपनी-अपनी सीमाओं पर यात्रा प्रारम्भ करते हैं और जीवन की आवश्यकताएँ भी पूरी करते हैं ।
पर आवश्यकताओं की भी एक सीमा होती है । वह चाहे साधु हो या गृहस्थ; मनुष्य की अपनी-अपनी परिस्थितियों और भूमिकाओं के अनुसार आवश्यकता छोटी-बड़ी हो सकती है, किन्तु फिर भी उसके पीछे एक निश्चित सीमा है और उस सीमा के अन्दर ही अन्दर, मर्यादा में रहकर मनुष्य अपनी जीवन यात्रा तय करता है । पर जब मनुष्य इन्हीं मर्यादा के बन्धनों को तोड़कर बाहर भटकना प्रारम्भ कर देता है । उसकी इच्छाएँ सीमा से बाहर हो जाती हैं, उसके शरीर की एवं परिवार की आवश्यकताएँ आवश्यकता के रूप में न रहकर संग्रह की मनोवृत्ति के रूप में बदल जाती हैं, तो उसे हम लोभ या तृष्णा कहते हैं ।
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आवश्यकताओं की पूर्ति और तृष्णा में आकाश-पाताल का अन्तर है । तृष्णा जीवन को पतन की ओर ले जाती है । तृष्णा, लोभ, आसक्ति आदि मानव मन के विकार हैं, जो उसके कल्याण पथ में अवरोधक बन कर आते हैं ।
विकारों से लड़ो
साधक जब साधना - पथ पर अग्रसर होता है, तो उसके जीवन-पथ
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