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पर्युषण-प्रवचन
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आधार भौतिक है । अतः उसका भोजन भी भौतिक पदार्थों का ही होता है । पर, आत्मा तो एक दिव्य शक्ति है । अतः उसका भोजन भी दिव्य एवं अमृतमय होता है । इन पर्व-दिवसों में आप लोग भौतिक भोजन छोड़कर आध्यात्मिक भोजन करते हैं, जिससे आपके चित्त को, आत्मा को पुष्टि एवं तुष्टि मिलती है—यही लोकोत्तर पर्व की मूल-भावना है ।
'पर्युषण' शब्द 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'वस्' धातु से 'अन' प्रत्यय लग कर बना है । 'पर्युषण' का अर्थ है-'आत्मा के समीप में रहना ।' अनन्त काल से आत्मा मिथ्यात्व में, मोह में और अज्ञान में रहता आया है । वह अपने स्वभाव को भूल कर विभाव को ही अपना निज स्वरूप मानता रहा है । यही कारण है, कि वह अपने दुःख, क्लेश और पीड़ाओं का ही अन्त नहीं कर सका है । पूरे एक वर्ष के बाद फिर वह शुभ अवसर आया है, कि आप लोग अपने जीवन को भौतिकता से अध्यात्म की ओर ले जाएँ, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर ले जाएँ, ममता से समता की ओर ले जाएँ, अज्ञान से सम्यग्ज्ञान की ओर ले जाएँ और विभाव-दशा से स्वभाव-दशा की ओर ले जाएँ । पर्युषण पर्व हृदय-शुद्धि, चित्त-शुद्धि और आत्म-शुद्धि का परम पवित्र पर्व है । आप क्या हैं ? आप कौन हैं ? यह जाँचने और परखने का ही यह मंगलमय पर्व है । इन पवित्र दिवसों में साधक सोचता है : ।
"कितनी त्याग सका पर-निन्दा,
कितना अपना अन्तर देखा । कितना रख पाया हूँ अब तक;
... अपने पाप-पुण्य का लेखा ॥ गगन में मेघ-गर्जना होने पर जैसे मयूर नाच उठता है, सरोवर में कमल खिल उठने पर जैसे भ्रमर गुंजार करने लगता है और रसाल-मञ्जरी आने पर जैसे कोकिल गूंज उठती है, वैसे ही अध्यात्म-साधक पर्युषण-पर्व आने पर मुखरित होकर मधुर स्वर से गाने लगता है :
लोभ मोह मद कितना छोड़ा,
नाता काम क्रोध से तोड़ा । विषय-वासनाओं से हटकर;
कितना प्रेम प्रभु से जोड़ा ॥
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