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आत्मा और परमात्मा
मनुष्य एक आत्मा और चैतन्य है, ईश्वर भी एक आत्मा और चैतन्य है; जैन दर्शन का यह स्पष्ट और सुदृढ़ स्वर है । इस सिद्धान्त को जैनाचार्यों ने और वेदान्त के आचार्यों ने भी स्वीकार किया है । उन्होंने कहा है-तुम बाह्य आवरण या विकारों के पर्दे को क्यों देखते हो ? आत्मा तो ज्योतिर्मान् सूर्य है, उस पर कर्मों के बादल छाए हुए हैं । जरा इन बादलों को हट जाने दो, फिर देखो कि उसकी ज्योति निखरती है या नहीं ? उसका चमकता हुआ शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है या नहीं ?
आत्मद्रव्य की अपेक्षा से आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । संसारी ओर सिद्ध जीवों के रूपों में आत्मा-परमात्मा का जो भेद दृष्टिगोचर होता है, उसका एक मात्र कारण कर्मों का आवरण है । कर्म-पटल से आच्छादित आत्मा संसारी है और अनावृत्त आत्मा ईश्वर है । कर्मों के आवरण का ही अन्तर है, आवरण हट जाने पर आत्मा का एक ही रूप दिखाई देगा । सोऽहं का स्वर
वेदान्त के आचार्यों ने कहा है-तुम सोऽहं का जाप करो । यही बात जैनाचार्यों ने भी कही है। हम लोग सोऽहं का जप करते हैं, जिसका अर्थ है—“वह मैं हूँ ।" आचार्य ने बताया है—“वह मैं हूँ ।" इसका भाव यही है—सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सम्पूर्ण शुद्ध चैतन्य “वह" है तथा आवरण से आच्छादित एक देह में लिपटा हुआ "मैं" दिखाई दे रहा हूँ, किन्तु वस्तुतः उस आवरण को हटा देने पर जो शुद्ध चैतन्य पर्याय है, वही "मैं" हूँ । शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से दोनों एक ही हुए । अतः “सोऽहं" का स्वर ध्वनित होता है "वह" दोनों में समान रूप से विद्यमान है । "वह" का अर्थ है चैतन्य । वह चैतन्य न कभी घटता है, न कभी बढ़ता है, न उसकी आदि है और न उसका अन्त ही है । वह पूर्ण चैतन्य एक पामर प्राणी में भी जगमगा रहा है और शुद्ध आत्मा में भी । इसलिए उस चैतन्य को पारिणामिक भाव कहा गया है । द्रव्य दृष्टि से तो समस्त आत्माएँ समान हैं, इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है :
'एगे आया' आत्मा एक है । अन्तर इतना ही है कि एक ओर विकारों के बादल
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