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________________ अध्यात्म-साधना समग्र विश्व में दो ही मूलभूत पदार्थ हैं-चैतन्य और जड़ । चैतन्य अनन्त हैं और जड़ भी अनन्त हैं । भगवान महावीर के दर्शन में जड़ और चैतन्य दोनों का अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, स्वतन्त्र स्वरूप है । विश्व की प्रत्येक जड़ या चैतन्य वस्तु अनादि-निधन है, अनादि अनन्त है और वह परस्पर एक दूसरे से भिन्न अपनी मौलिक मर्यादा में ही परिणति होती है । कोई किसी के अधीन नहीं है, सहारे नहीं है । न कभी ऐसा हुआ है और न कभी ऐसा होगा कि किसी के बलात्परिवर्तन के द्वारा अपनी स्वतंत्र एवं अखण्ड सीमा-रेखा से एक अणुमात्र भी इधर-उधर की पराश्रयी स्थिति-गति में बदला जा सके । जैन दर्शन के अनुसार निगोद जाति के जीव सर्वाधिक निकृष्ट स्थिति में हैं । सम्पूर्ण विश्व में निगोद जीवों के असंख्य लोक प्रमाण असंख्य शरीर हैं । और तो क्या, एक अंगुल आकाश-क्षेत्र के असंख्यातवें-लघुतम भाग में भी निगोद जीवों के असंख्य शरीर हैं । उक्त असंख्य शरीरों में से प्रत्येक शरीर में अनन्त जीव हैं, जो एक साथ श्वास लेते हैं, एक साथ आहार ग्रहण करते हैं, एक साथ ही जन्म लेते हैं और एक साथ ही मरते हैं । प्रत्येक जीव के अपने-अपने स्वतंत्र असंख्य प्रदेश हैं, प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त कर्म-वर्गणा है और प्रत्येक कर्म-वर्गणा में अनन्तानन्त पुद्गल-परमाणु हैं । इस प्रकार अनन्त जीव और अनन्त पुद्गल, अनन्तकाल से एक साथ रहते आ रहे हैं, फिर भी दोनों की परिणति भिन्न-भिन्न है । एक दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र है । यही कारण हैं कि इतने निकट रहते हुए भी न कोई जीव पुद्गल के रूप में परिवर्तित होता है और न कोई पुद्गल ही जीव का रूप ग्रहण करता है। दोनों की अपने जड़ और चैतन्य की मूलभूत सीमा रेखाओं के अन्दर रहकर अपनी-अपनी अविच्छिन्न एवं स्वतंत्र परिणमन-धारा में मान हैं । - जड़ और चैतन्य का स्वतन्त्र पृथक भाव हो, इतना ही नहीं, अपितु प्रत्येक चैतन्य और प्रत्येक जड़ का भी सर्वतोभावेन पृथक भाव है । निगोद में अनन्त जीव एक साथ रहते हैं, फिर भी प्रत्येक जीवद्रव्य की पर्याय प्रत्येक समय में भिन्न-भिन्न होती है, एक दूसरे के परिणाम परस्पर नहीं मिलते । एक साथ जन्म, जीवन और मरण प्राप्त हुए भी किसी के - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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