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________________ पर्युषण-प्रवचन संयम, साधना व आदर्श का विवेक उस जीवन में नहीं था । यही कारण था कि उस काल में एक भी आत्मा मोक्ष में नहीं गई और कर्म तथा वासना के बन्धन को तोड़ नहीं सकी । उनकी दृष्टि केवल 'मैं' तक ही सीमित थी । शरीर के अन्दर में शरीर से परे क्या है, मालूम होता है, इस सम्बन्ध में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं, और यदि किसी ने सोचा भी तो आगे कदम नहीं बढ़ा सका । जब कभी उस भूमिका का अध्ययन करता हूँ तो मन में ऐसा भाव आता कि मैं उस जीवन से बचा रहूँ । जिस जीवन में ज्ञान का कोई प्रकाश न हो, सत्यता का कोई मार्ग न हो, भला उस जीवन में मनुष्य भटकने के सिवाय और क्या कर सकता है । उस जीवन में यदि पतन नहीं है, तो उत्थान भी तो नहीं है । ऐसी निर्माल्य दशा में, इस त्रिशंकु जीवन का कोई भी महत्त्व नहीं है । हाँ, तो ऐसी ही क्रान्ति और प्रगति विहान सामान्य दशा में वह अकर्म-युग चल रहा था, उसे जैन भाषा में पौराणिक युग कहते हैं । नया युग : नया संदेश धीरे-धीरे कल्प वृक्षों का युग समाप्त हुआ । इधर प्राकृतिक उत्पादन क्षीण पड़ने लगे, उधर उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ने लगी । ऐसी परिस्थितियों में प्रायः विग्रह, वैर और विरोध पैदा हो ही जाते हैं । जब कभी उत्पादन कम होता है और उपभोक्ताओं की संख्या अधिक होती है, तब परस्पर संघर्षों का होना अवश्यंभावी है । ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर उस युग में भी यही हुआ कि पारस्परिक प्रेम व स्नेह टूटकर घृणा, द्वेष, कलह और द्वंद्व बढ़ने लगे, संघर्ष की चिनगारियाँ उछलने लग गईं । समाज में सब ओर कलंक, घृणा, द्वन्द्व का सर्जन होने लगा । मानव जाति की उन संकट की घड़ियों में, संक्रमण शील परिस्थितियों में भगवान ऋषभदेव ने मानवीय भावना का उद्बोधन किया, उन्होंने मनुष्य जाति को समझाया — अब प्रकृति के भरोसे रहने से काम चलने का नहीं है । हमारे हाथों का उपयोग सिर्फ खाने के लिए ही नहीं किन्तु कमाने उपार्जन करने के लिए भी होना चाहिए । उन्होने कहा - युग बदल गया है, वह अकर्म-युग का मानव अब कर्म - युग ( पुरुषार्थ के युग) में प्रविष्ट हो रहा है । इतने दिन पुरुष सिर्फ भोक्ता बना हुआ था । प्रकृति के कर्तव्य पर उसका जीवन टिका था । किन्तु अब यह वैषम्य चलने का नहीं है । अब कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही पुरुष में हैं । पुरुष ही कर्ता है और पुरुष ही भोक्ता है । तुम्हारी भुजाओं में बल । तुम पुरुषार्थ से आनन्द का उपभोग करो । भगवान आदिनाथ के Jain Education International १४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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