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पर्युषण-प्रवचन
नहीं चलना चाहिए, जब नगर का कोई भी व्यक्ति उधर जाने का साहस नहीं करता तो तुम अकेले ही ऐसा क्यों करते हो ? क्या तुम्हीं सबसे अधिक श्रद्धावान हो ? भगवान तो सर्वज्ञ हैं, यहीं पर बैठे यदि वन्दना करोगे तो भी वह स्वीकृत हो जायेगी, वन्दना भाव से होती है, उसमें दूर क्या, निकट क्या ? बहुत बार भगवान के चरणों में सिर लगाने पर भी मन कहीं और भटकता रहा तो क्या लाभ हुआ ? अतः घर बैठे ही वन्दना कर लेना उचित है ।
सुदर्शन का मुख मण्डल तो शौर्य से दीप्त हो ही रहा था, पिता की बातें सुनकर उसकी वाणी में भी ओज भर आया—पिताजी ! मेरी श्रद्धा निःसत्त्व नहीं है, जो अपने देवता को सामने आया देखकर भी मारे भय के बहाना ढूँढ़ती रही, और उसके चरणों में जाकर अपने को अर्पित करने से वंचित रहा । यह सही है कि भगवान् सर्वज्ञ हैं, सबके भाव जानते हैं, किन्तु यही चीज मानकर यदि हमने अपने घर बैठे ही वन्दना करने का क्रम शुरू कर दिया तो फिर हर अवस्था में हम यही बहाना निकालते रहेंगे । हमारी श्रद्धा पंगु बन जायेगी । अतः आप आज्ञा दीजिए कि मैं भगवान महावीर के चरणों में जाऊँ ।
माता-पिता ने आखिर सुदर्शन के आग्रह पर विवश होकर आज्ञा दी । अब सुदर्शन ने राजा श्रेणिक से आज्ञा मांगी, श्रेणिक भी सुदर्शन की साहस और श्रद्धा भरी बातों से चमत्कृत हो गया और नगर से बाहर जाने की अनुमति दे दी । जिसने भी सुदर्शन की यह साहस भरी बात सुनी, वही उसके शौर्य की प्रशंसा करने लग गया ।
सुदर्शन अब आनन्दित हो रहा था, नगर का द्वार खोला गया और उसके निकलते ही तुरन्त बन्द कर दिया गया, सुदर्शन आगे बढ़ा, थोड़ी दूर गया, कि अर्जुन माली हाथ में मुद्गर लिए घूमता हुआ दिखाई पड़ा । सुदर्शन को देखते ही वह उसकी ओर दौड़ा । सुदर्शन ने देखा कि मौत सामने आ रही है, हाथ में मुद्गर लिए यह रौद्र आकृति मनुष्य के खून से अपनी प्यास बुझाने के लिए बेतहाशा दौड़ लगा रहा है । सुदर्शन ने धैर्यपूर्वक वहीं पर कदम थमा दिए, भूमिका परिमार्जन (अवलोकन) करके भगवान की ओर वंदना की । प्रभो ! सामने मारणांतिक उपद्रव आ रहा है, यदि इस उपद्रव से मुक्त हुआ तो प्रभु के चरणों में आकर वन्दना करूँगा, नहीं तो यहीं से मेरा वंदन स्वीकृत हो । वंदना करके उसने संथारा (सागारिक) भी
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