SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव गीत ज्योतिर्मय जीवन के अस्सीवें पुण्य शरद् में आपका प्रवेश हो रहा है। लाखों-लाख समवेत स्वरों में आपका हृदय से स्वागत है । भावपूर्ण अभिनन्दन है । सूर्य से चर-अचर सृष्टि को प्रकाश प्राप्त होता है, किन्तु जीवन में एक और प्रकाश की आवश्यकता है । भूमण्डल आधार है, जीव सृष्टि का, किन्तु इसके साथ जीवन में एक और आधार की भी जरूरत है । और, वह सूर्यातिशायी अलौकिक दिव्य प्रकाश तथा सब ओर से निराधार हुए जीवन का सूक्ष्म भावनात्मक अद्भुत आधार है-- गुरु ! गुरुदेव ! परमात्मभाव की प्रकाश यात्रा के अविचल पथिक हो तुम ! परमाराध्य महान् गुरुदेव ( पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज) के परमाराध्य अन्तेवासी शिष्य हो तुम, गुरुत्व और शिष्यत्व की दोनों निष्ठाओं के अस्खलित सफल सूत्रधार ! अतः मानवतावादी संवेदनशील हृदय के संत हो, सही अर्थ में ! अपने अन्तर में परमात्म भाव का अमोघ दिव्य स्वर सुनते हो, सुनते हो बाहर में मानव मन की पीड़ा का दर्दभरा करुण स्वर ! दिशाहीन एवं दृष्टिहीनों ने तुमसे मार्ग पाया है, दृष्टि पायी है । और उन दिशा प्राप्त भक्त कण्ठों ने गाया है- " अभिनन्दन है देव तुम्हारा, तन मन के कण कण से प्रतिपल ! " तुम किनके हो ? उनके हो, जिनका कोई नहीं है । जो जीवन संघर्ष में सब ओर से हार चुके हैं, उनके तुम हो ! जो प्रश्न बन कर खड़े हैं, उनके तुम हो ! तुम किनके नहीं हो ? तुम सब के हो, सब तुम्हारे हैं । तुम्हारे भक्तों का पूजा गीत है- "भद्दं जगज्जोगस्स ।" "गुरुः साक्षाद् परं ब्रह्म ।" समाज की अन्ध जड़ता को, पुरातन के व्यामोह को, आज के साधु-जीवन में धर्म के नाम पर व्याप्त निष्कर्मण्यता की गहरी निद्रा को तोड़ने वाले तुम प्राज्ञपुरुष हो । प्राचीन ऋषि-परम्परा के तुम गौरव हो । वर्तमान के निर्माता हो । भविष्य के द्रष्टा हो । युवापीढ़ी की ज्योतिर्मय आशा हो । परस्पर विरुद्ध संघर्षशील विचारधाराओं को जोड़ने वाले सूत्रधार हो । शब्दों के श्रेष्ठ शिल्पी । शब्दों में भावों के रंग उतारने वाले कुशल कलाकार हो। तीर्थंकर महावीर की अमृत वाणी के तुम व्याख्याकार हो। जैन, बौद्ध, वैदिक-शास्त्रों की सुदीर्घपरम्परा के तुम ज्ञाता, द्रष्टा हो । पर अब वे शास्त्र तुम्हारे लिए शब्द-शास्त्र नहीं रहे। शास्त्र तुम्हारा निजी अनुभव बन गया और उस अनुभव के प्राणवान् स्पर्श से तुम्हारी साधना सजीव बन गयी । अतः तुम अत्याख्येयतत्त्वपुरुष ! भगवत्स्वरूप दिव्य-चेतना के साक्षात् रूप हो । इन्हीं भाव क्षणों में श्रद्धावनत् भक्तों का मंगलगान है तुम्हारे श्री चरणों में- Jain Education International "चिरं जीव, चिरं जय ।" बच्चों जैसा सुकोमल, मधुर एवं सरल मन है। पर, तुम्हें किसी भी बहलावे में बहलाया नहीं जा सकता । युवकों की तरह विचारों में वज्रवत् दृढ़, सबल; किन्तु विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति । तुम्हारे पास अनेकानेक जन्मों से संचित दिव्य अनुभूतियों का अथाह खजाना है, और इसे सर्वसाधारण के हित में अर्पित करने की अद्भुत क्षमता भी है तुम में धर्म और संस्कृति के कण-कण में रमा हुआ जीवन है, पर वह सहज है। शास्त्रीय परम्पराओं में निष्ठा के साथ पूरी तरह आबद्ध, किन्तु निष्प्राण रूढ़िगत मान्यताओं के आलोचन - प्रत्यालोचन में vii For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy