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________________ दोनों में ही शान्ति की अपेक्षा अशान्ति की ही संभावना अधिक रहती है। जो कुछ भी नियत है, प्राप्तव्य है, उसे संसार की कोई भी ताकत रोक पाने में समर्थ नहीं है, और जो अप्राप्तव्य है, उसे कोई प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है । मनुष्य व्यर्थ ही विकल्पों में उलझता है । और उलझकर अपने स्वर्णिम समय को आलोचनाओं के कटु संवादों मैं परिणत कर देता है। यह संसार अपने नियत पथ पर गतिमान है। इसकी गति नियति से स्पन्दित है। प्रस्तुत संदर्भ में भारत के एक महान तत्त्वदर्शी ऋषि ने कहा था कि सुख हो अथवा दुख हो, प्रिय हो, अथवा अप्रिय, जो भी यथाप्रसंग प्राप्त होता जाय, उसे स्वीकार कर लेना ही उत्तम है । परन्तु उक्त स्वीकृति में सावधान रहने की जरूरत है, हृदय में किसी भी प्रकार के पराजित भाव को उत्पन्न न होने देने की आवश्यकता है और न मन को किसी भी रूप में तरंगाकुल होने देना है। प्राप्त होने वाली हर परिस्थिति को स्वीकृति देने का यह अर्थ नहीं है कि जो अनुचित हो, प्रतिहार्य हो, उसका प्रतिहार एवं प्रतिकार न किया जाए। नियति का अर्थ हताश हो कर हर कहीं घुटने टेक देना नहीं है। प्रतिकार करने की भी अपनी नियति है, बस अपेक्षा एकमात्र यही है कि वह प्रतिकार भी नियति के रूप में स्वीकृत किया जाना चाहिए, फलतः आकुलता से मुक्त रह कर सब-कुछ अनाकुल भाव से होना चाहिए। अस्तु नियतिवाद मानव मन को सर्वदा अनाकुल, अनाविल, स्वच्छ रहने की प्रेरणा देता है। निष्कलुष ज्ञान की तेजोमय आभा से हर क्षण दीप्त रहने का मंगलमय संदेश देता है। यह चिन्तन, वह प्रशान्त सागर जहाँ कलुष के हाहाकार करते तमाम तूफान शान्त हो जाते हैं और एक परम शान्त स्निग्ध वातावरण की मंदमदिर सौरभ से आत्म चेतना आप्यायित हो जाती है। इसी अनाकुल शान्त भाव की उपलब्धि के लिए तत्व द्रष्टा ऋषि की पुरातन, किन्तु हर क्षण नूतन दिव्य वाणी है : नियति का सर्वतोष दर्शन Jain Education International "सुखं वा यदि वा दुःखं । प्राप्त प्रियं वा यदि वाऽप्रियम् ॥ प्राप्तमुपासित । हृदयेनाऽपराजितः ||" For Private & Personal Use Only ४१ www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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