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________________ चार पृष्ठ पढ़ते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और किसी भी सहृदय की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकलती है। जन दर्शन का शुद्धात्मवादी ईश्वर मध्यकालीन एकतंत्र राजप्रणाली के रूप में वयक्तिक न होकर लोकतंत्र के रूप में सामाजिक है। वह हर किसी को बिना किसी भेदभाव के पूर्ण पवित्र होने और ईश्वर यानी परमात्मा बन जाने की प्रेरणा देता है। अत: वैयक्तिक ईश्वरवाद से होने वाले अहंमलक संघर्षों से मानवजाति को त्राण देता है। कोई भी हो, सबके लिए ईश्वरत्व का द्वार खुला है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करो, अपने अन्तर को मांजो--साफ करो और ईश्वरीय पद प्राप्त करो। जैन-दर्शन का ईश्वर अर्थात् परमात्मा एक कोई खास व्यक्ति नहीं है, अपितु पवित्रता की पूर्णता का एक सर्वोच्च पद है। व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ है, अन्तर का अपना जागरण है, फलतः जो भी साधक चाहे वह ईश्वर बन सकता है, अपने अन्तर के अनादि काल से सुप्त ईश्वरीय भाव को जगा सकता है। भारतीय दर्शनों में वेदान्त-दर्शन भी उक्त जन ईश्वरवाद अर्थात् परमात्मस्वरूप-ब्रह्मवाद के काफी निकट है। वह भी हर जीव के लिए ब्रह्मत्वभाव एवम् परमात्मभाव की स्वीकृति देता है। उसका भी सत्य का यह महान उद्घोष है कि 'जीवो ब्रह्मव नाऽपरः।' जीव मूलतः ब्रह्म ही है, परमात्मा ही है, दूसरा कुछ नहीं है। यहाँ जैनों का 'अप्पा खल परमप्पा' और वेदान्तियों का 'अहं ब्रह्मास्मि'--दोनों सूत्र एक केन्द्र पर आ खड़े हो जाते हैं। अत: मानव जाति का उत्थान एवम् कल्याण यदि हो सकता है, तो इन्हीं उदात्त सूत्रों के आधार पर हो सकता है। यहीं पर द्वैत का अन्धकार छंटता है और चैतन्य जगत् में भावात्मक अद्वैत का निर्मल प्रकाश जगमगाता है। इससे बढ़कर ईश्वरीय आस्तिकता और क्या हो सकती है? तटस्थभाव से बहुत गहराई में उतर कर चिन्तन की अपेक्षा है। सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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