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________________ स्वामी की प्रताड़नाओं से हो जाती थी, तो उसकी सुनवाई के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। कैसी विडम्बना थी कि उन दासों के हाथों भिक्षा ग्रहण करने में भिक्षक भी अपना अपमान समझते थे। भगवान महावीर ने प्रथम बार इस जघन्य वत्ति के लिए समाज को चेतावनी दी; सजनात्मक विप्लवी घोषणा की। इतिहास के पृष्ठों में चंदनबाला की कष्ट-कथा, तत्कालीन मनुष्य-समाज की दानवी-प्रवृत्ति एवं सामाजिक-विकृति दोनों को ही उजागर करने वाली कथा है। भगवान् महावीर ने उसे यंत्रणापूर्ण जीवन से उबार कर विराट् साध्वी-संघ के प्रमुखपद की उच्चपीठिका पर समासीन करने की भूमिका निबाही। उनके धर्म-संघ में वह श्रेष्ठ मानव-आचारों की प्रवक्ता बनी। पतित तथा शूद्र कहलाने वाला, अभिशापित दासवर्ग, जो जीवन भर दासकर्म करता हआ रोतापीटता मृत्यु के द्वार पर पहुंचता था, समाज में श्रद्धा भाजन ही नहीं, मुक्ति-लाभ करने वाला भगवत्स्वरूप अर्हन्त के रूप में भी पूजित हुआ। समाज की विषमता दूर करने में भगवान् महावीर को हम अन्य सभी महापुरुषों से आगे पाते हैं। ज्ञात इतिहास में उनके वैशिष्ट्य की तुलना सहज ही किसी दूसरे से नहीं की जा सकती। राजनीतिक क्षेत्र हम देखते हैं, राजनीति के क्षेत्र में भी भगवान् महावीर की उपलब्धि किसी प्रकार कम नहीं कही जा सकती। जिस संक्रान्ति काल में उनका जन्म हुआ था, वह राजनीति का भी सर्वथा ह्रासकाल था। भारत ने प्रजातंत्र का नवीन प्रयोग कर जो कीर्ति प्राप्त की थी, उस प्रजातंत्र का मात्र ढांचा ही शेष रह गया था। प्रजातंत्र में भी अधिनायकवाद का उभरता प्रचंड काला नाग जनता का रक्तपान करने लगा था। प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में जननायक जन से हटकर केवल नायक के आसन पर आसीन हो चुके थे। और तो क्या, राजा और राजा से ऊपर महाराजा का उच्च आसन भी रिक्त नहीं था, तत्कालीन प्रजातंत्रों में। इतिहास महाराजा चेटक को हमारे सामने सर्वाधिकार प्राप्त महाराजा के रूप में ही उपस्थित करता है। स्वयं भगवान् महावीर का जन्मज्ञात गणतंत्र के वैभवशाली एक विशिष्ट राजकुल में हुआ था। हम तो कहेंगे, प्रजातंत्र की अनेक अलोकतंत्रीय खामियों ने, नित्य के होने वाले उत्पीड़नों ने ही भगवान को तथाकथित प्रजातंत्री जननायकों तथा एकतंत्री निरंकुश राजाओं के विरुद्ध बोलने को विवश कर दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने भिक्षुओं को राजकीय अन्न तक भी ग्रहण करने का निषेध कर दिया था। उन्होंने केवल आने वाले कठिन भविष्य की ओर तत्कालीन जननायकों का ध्यान ही आकृष्ट नहीं कराया, उन्हें सही रूप में जन-प्रतिनिधि के योग्य कर्तव्य-पालन की चेतावनी भी दी। महावीर ने कहा था--कोई कैसा ही महान् क्यों न हो, महाआरंभ और महापरिग्रह नरक के द्वार हैं। समग्र भाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व है--'सव्वपयाणुकंपी'। यदि और कुछ उच्चतर पावन कर्म नहीं कर सकते हो, तो कम से कम साधारण आर्यकर्म तो करो। “अज्जाइं कम्माई करेहि रायं" राजनीति के क्षेत्र में यह कितना महान् उद्बोधन था! कौन कह सकता है कि वैशाली जनतंत्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्यधर्म को यथार्थ रूप में ग्रहण न करने के कारण ही नहीं हुआ? यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्य भूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मा रूप में अपनाने का साहस अपनाते, तो वैशाली का जनमानस कभी विधटित नहीं होता। मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती। इतिहास का वातायन एक-एक अन्वेषी हृदय के लिए खुला हुआ है- हम जितनी बार चाहें, भगवान् महावीर के जीवन पर दृष्टिपात कर सकते हैं। हमें उनके जीवन एवं संदेशों में किसी भी वाद, किसी भी समस्या का समुचित समाधान आज भी प्राप्त हो सकता है। "जाती है जिस ओर दृष्टि, बस उसी ओर आकर्षण । करता अग-जग को अनुप्राणित, जगनायक का जीवन ॥" सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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