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________________ न तो आगमों का गहराई से अध्ययन किया है, न उस पर चिन्तन-मनन ही किया है । गलत एवं मिथ्या धारणाओं के अंधेरे में भटकते हुए चिन्तन-शून्य व्यक्तियों से और आशा भी क्या रखी जाय ? अज्ञान के निविड़ अंधकार में भटकते व्यक्तियों को प्रकाश दिया, इसलिए भगवान् ऋषभदेव का कर्म करने का उपदेश पुण्य था । उसमें त्रस्त, संतप्त एवं पीड़ित प्रजा को सुख-शान्ति देने का उपक्रम था । भूख की वेदना से संत्रस्त, परस्पर लड़ने-झगड़ने, छीना-झपटी करने, एक-दूसरे का प्राण लेने के लिए मारकाट करने को तत्पर जनता को उन्होंने सात्विक कर्म करके अपनी भूख मिटाने का सही रास्ता दिखाया । यही कारण कि वह विराट् पुरुष संसार का और विशेष रूप से वर्तमान कालचक्र का आदि पुरुष है, पहला वैज्ञानिक है और प्रथम आविष्कारक है, जिसने कृषि आदि कर्म एवं कलाओं की उपयोगिता को जनता के सामने रखा, उसके लिए काम में आनेवाली साधन-सामग्री बनाने का मार्ग बताया तथा उन साधनों का प्रयोग करना सिखाया । उसने विश्व को प्रकाश दिया, जीवन जीने की कला सिखाई । इसलिए जैन- दर्शन के महान् विद्वान् आचार्य समन्तभद्र ने उस ज्योति -पुरुष की स्तुति करते हुए कहा था- " स विश्व-चक्षुर् वृषभोऽचितः सतां, समग्र-विद्यात्म-वपुर् निरंजनः । पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, जिनोऽजित क्षुल्लक - वादिशासनः ।। " - वह संपूर्ण विश्व की, सारे संसार की आँख थी । अकर्म - भूमि ( भोग- भूमि) से कर्म - भूमि की ओर अग्रसर होने वाली, अकर्मण्य जीवन से कर्तव्यता के पथ पर कदम रखने वाली अज्ञ जनता, अपने प्राप्त कर्मपथ को निर्मल विवेक की आँखों से देख नहीं पा रही थी। उसके विवेक-चक्षु खुले ही नहीं थे । उसे जीवन-यापन का सही रास्ता मिल ही नहीं रहा था । अस्तु, उस समय प्रभु की आँख ही सारे विश्व की आँख थी, जिसने जीवन जीने का सही रास्ता दिखाया । विश्वचक्षु आदिगुरु ने उस युग के मानव को, जो एक तरह से अर्धपशु था, मानवोचित समग्र विद्याएँ सिखाईं । Jain Education International उन्होंने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन जीने के लिए समस्त कलाओं का, जीवन की सभी विधाओं का शिक्षण दिया। आपको आश्चर्य होगा कि भगवान् ऋषभदेव ने अपनी ८४ लाख पूर्व की आयु में से ८३ लाख पूर्व जन-जीवन को व्यवस्थित करने, जन-चेतना को जागृत करने, कर्मशील बनाने में लगाये । परिवार, समाज, ग्राम, नगर एवं राष्ट्र के जीवन को व्यवस्थित बनाने के बाद ही प्रभु ने एक लाख - पूर्व तक स्वयं अध्यात्म-साधना का मार्ग अपनाया और दूसरों को बताया। जीवन के ८४ में से ८३ भाग गृहस्थ जीवन को विवेक, संयम एवं नियम से जीने की कला सिखाने में लगाये । उसके बाद अध्यात्म की शिक्षा दी । इसका स्पष्ट अर्थ है कि यदि व्यक्ति बाहर के सामाजिक जीवन व्यवहार में व्यवस्थित नहीं है, तो वह अन्तर्र की अध्यात्म चेतना में व्यवस्थित एवं स्थिर कैसे हो सकता है ? इसलिए भगवान् ऋषभदेव का यह वज्र आघोष था कि व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में व्यवस्थित रहे, सुखी रहे । वह बाहर में भी सुखी और अंदर में भी सुखी रहे । वह व्यक्तिगत जीवन में भी सुखी रहे और पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन जीते हुए भी सुखी रहे। भले ही वह अकेला रहे या सबके साथ रहे, हूर-क्षण सुख-शान्ति की अनुभूति करे। यह स्पष्ट है कि प्रायः अच्छे परिवार एवं अच्छे समाज में से ही अच्छे धर्म का उद्भव होता है । सुन्दर एवं सुरम्य जीवन का प्रारंभ अच्छे समाज में से ही होता है। यदि कोई समाज दूषित है, पीड़ित है, दुष्कर्म में संलग्न है, हाहाकार की स्थिति में से गुजर रहा है, तो उन संत्रस्त चेहरों पर आन्तरिक मुस्कराहट की बाहर में चमक आना कठिन है । परन्तु वे महापुरुष धन्य हैं, जो रोती हुई आँखों में से आनन्द के स्रोत बहा देते हैं । इसलिए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि भगवान् ऋषभदेव समग्र विद्याओं के आचार्य हैं, समग्र विद्याओं का प्रशिक्षण देने वाले जगद्गुरु हैं, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के निर्माता हैं, फिर भी निरंजन अर्थात् निलिप्त हैं । उनके जीवन की चादर पर एक भी पाप की रेखा नहीं है, कालिमा का जरा-सा भी धब्बा नहीं है । वह जिन हैं, अर्थात् विजेता हैं। केवल राग-द्वेष के ही नहीं, समस्त समस्याओं के विजेता हैं, सब समस्याओं का सही समाधान करने वाले हैं । भगवान् ऋषभदेव का जीवन प्रारंभ से ही विजेता का जीवन रहा है। जिसने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष -- चारों का सही रूप बताकर जीवन की सभी समस्याओं आदिगुरु ऋषभदेवः For Private Personal Use Only ७ www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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