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________________ दूर-दूर के आतुर प्राणी भव-रुज यहाँ मिटा जाते, चर्म-चक्षु की चर्चा ओछी, ज्ञान-चक्षु वे अपनाते, समवसरण की पुण्य भूमि में मिटता उनका दारुण दुखममता से भीगा सावन वे यहाँ जेठ में भी पाते। क्षण भर बैठ यहाँ ढूंढ़ो कवि, अपने भाव-रत्न खोए, रहे अपरिचित तुम परिचित से, सदा अपरिचित ढिग रोए। मोह-धूलि-धूसर प्राणों को तुम चिन्तन जल से धो लो, ब्राह्मी कला-तीर्थ में आकर निर्विकार बोली बोलो, जिनवर का चारित्र्य-वृत्त है दग संमुख प्रेरक, पावनचिर गति बनी श्रमण संस्कृति यह तुम भी समद साथ हो लो। उपदेशक गुरुदेव, देशना यहाँ रात दिन है चलती, होते जो जिज्ञासु उन्हें ही गूढ़ ज्ञान की निधि मिलती। कर में त्याग, ज्ञान अन्तर में मख में जन-कल्याण वचन, राष्ट्रसंत जय! कुलपति जय-जय! जय सेवा-अपित जीवन ! संस्कृति, प्रकृति, विकृति तीनों का भेद यहीं आकर खुलताकलित कौमदी अमरचन्द्र की करती उद्भासित कण-कण । हैं युग-पूज्य शास्ता ये ही, अग-जग इनका दास बना, वाणी इन की अमर-भारती, चरित, मंजु इतिहास बना। पारिपाश्विक मनिवर जितने, सभी निरंजन, विज्ञानी, सभी लब्धि-धर, जग विरक्त हैं, प्रेम, आस्था, वरदानी, मनि अखिलेश वन्द्य, करुणा-घन, सखा मनीषी ज्योतिर्धरहोती आत्मा स्वयं विभासित सुन इनकी तात्विक-वाणी। आए ये सुदूर गिरि-व्रज में रघुवर संग लक्ष्मण बन कर, मंगल मूत्ति, श्रमण गरिमा-गृह, श्रुत-तत्वज्ञ, ज्ञान-निर्झर । तपःपूत व्यक्तित्व खोजने कवि, न दूर तुम को जाना, न ही तुम्हें चन्दनबाला का आश्रव-संवर दुहराना, विदुषी, साध्वी-रत्न चन्दना यहाँ लोक-सेवा में रतशुचि महत्तरापद अधिकारिणि इन्हें विज्ञ-जन ने माना। मानवतावादी दर्शन में इनसे नव अध्याय जड़ा, नमन करो, करुणा-प्रवाह फिर आर्त जगत की ओर मुड़ा। पा गुरुवर से ज्ञान-संपदा, जो प्रबुद्ध, जो गत संशय, कवि, विश्रुत ये वीर धरा के सौम्य तपी मुनिवर्य विजय, श्रमण-संस्कृति समय समन्वित हुई पुनः इनको पाकरअन्ध मान्यता उन्मूलन में ये अविचल उर, चिर निर्भय । जीवन और जगत पर करता मानव-मन अनुक्षण चिन्तन, आत्म-रूप की झलक दिखाता सब को एक श्रमण-दर्शन। शत-शत रम्य नगर हैं सम्प्रति इस अरण्य पर न्योछावर, गुरुवर-पद-नख ज्योति प्राप्त कर ज्योति भरित भूतल-अम्बर, वही ब्रह्मपुर क्षीरोदधि में गिरा-इन्दिरा अब रहतीदिव्य महासतियों में दर्शित छवि उनकी मंगल, मनहर । पावन 'सुमति' 'साधना' 'सुयशा' संस्कृति बीज यहाँ बोतीसहज 'चेतना' 'विभा' 'शुभा' उर नित कलि-कल्मष हैं धोतीं। २३८ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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