SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होना चाहिए इतना उदात्तीकरण कि उसमें समग्र विश्व समा जाए। इस सन्दर्भ में एक प्राचीन विश्वात्मा मुनि के शब्द दुहरा देता हूँ- उक्त पवित्र विचार के प्रकाश में ही आज साधुओं को दीक्षित करने की आवश्यकता है। क्षुद्रहृदय साधु से बढ़कर कोई बुरी चीज नहीं है दुनिया में सच्चा साधु वह है, जो विश्वात्मा है। विश्वात्म भाव में से ही परमात्मभाव प्रस्फुटित होता है। कुछ ऐसे ही प्रबुद्ध, विवेकी एवं महामना साधुजनों की आज विश्व को बहुत बड़ी अपेक्षा है। साधु का अर्थ ही सज्जन है। वह सज्जनता का, शालीनता का ध्रुव केन्द्र है। इस प्रकार साधुसंस्था पर विश्व में सर्वतोमुखी सज्जनता की प्रतिष्ठा का दायित्व है। आज विश्व की भौतिक प्रगति ने मानव को सब ओर से असन्तुष्ट बना रखा है। आज का मानव दिशा-भ्रष्ट हो गया है, होता जा रहा है। विभिन्न प्रकार के घातक और भयंकर उपकरणों के मर्यादाहीन निर्माण ने जीवन की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है । निरन्तर की बढ़ती जाती उतेजनाओं ने जीवन की सहज शान्ति को भंग कर दिया है । तुच्छ स्वार्थ एवं अहंकार मानवता की गरिमा के प्यासे बनकर रक्त-पिपासु भेड़ियों की भाँति मैदान में निकल पड़े हैं। ऐसे नाजुक समय में साधु-संस्था पर दुहरा उत्तर दायित्व आ पड़ा है। उसे अपने को भी संभालना है और समाज को भी। अतः उसे चाहिए कि अपनी आन्तरिक अनन्त चेतन सत्ता के जागरण के साथ वह जन जागरण का दायित्व भी पूरा करे वह वैयक्तिकता के क्षुद्र घेरे में आवद्ध होनेवाली स्वार्थलिप्त दुनिया को "वसुधैव कुटुम्बकम्" की पवित्र घोषणा दे, उसे सच्ची मानवता का पाठ पढ़ाए । । "अहंता ममताभावः त्यक्तुं यदि न शक्यते । अहंता-ममताभावः, सर्वत्रैव विधीयताम् ।।" जीवन की क्षुद्र विकृतियों से ऊपर उठकर अन्तर में परमात्म-तत्त्व की खोज और उसके अंग-स्वरूप विश्वमानवता का आत्मीपम्य दृष्टि से नव-निर्माण संक्षेप में यही है, मुनि दीक्षा का साधुता का मंगल आदर्श । २३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only सागर, नौका और नाविक www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy