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________________ है, उसका अमुक अंश में कुछ दोष नारी पर भी आया है। इसलिए आज की नारी को अपनी प्राचीन गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखना है, तो उसे सजग होना होगा। एक बहुत बड़ा उत्तर-दायित्व उन्हें पुनः वहन करना होगा। विश्व के अनेक मनीषी चिन्तक समझते हैं कि संसार को त्रास से मुक्ति दिलाने का कार्य अन्ततः नारी कर सकती है। अंगजात सन्तान के रूप में उसे एक तरह से कच्ची मिट्टी का आर्द्र पिण्ड मिला है। उसे क्या बनाना है और क्या नहीं बनाना, परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्म एवं संस्कृति के हित में, यह अर्थगंभीर समयोचित निर्णय करना, उसके ही अधिकार क्षेत्र में है। जब माताएँ योग्य होती हैं, तो वे अपनी सन्तान में सांस्कृतिक चेतना का रस पैदा कर देती हैं। करुणा की प्रशान्त, शीतल, सुखद छाया में मानव ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति स्नेहसिक्त उदार मर्यादा भाव जगा देती हैं, धर्म एवं समाज की सेवा के लिए महत्त्वपूर्ण प्रेरणा प्रवाहित कर देती हैं। वे अपनी और पास-पड़ोस की कोमल पौधे के रूप में अंकुरित होती प्रिय सन्तानों को जैसा भी बनाना चाहें बना सकती हैं। देव, दानव या मानव कुछ भी बनाना अधिकांशतः माताओं की चेतना और चर्या पर ही निर्भर है। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय जीवन का उत्थान-पतन दोनों ही नारी की विचार प्रक्रिया के ऊपर निर्भर करता है। परन्तु, आज इसके विपरीत सर्वत्र देखा ऐसा जा रहा है कि नारी-जगत ने अपने कान खड़े कर लिए हैं और आंखे बन्द कर ली हैं। फलस्वरूप वैचारिक-जगत् में भ्रम फैल गया है कि वह स्वयं कुछ नहीं कर सकती। नारी अबला है, उससे कुछ नहीं हो सकता। आज के नारी-आन्दोलन इसके साक्षी हैं कि नारी अपने अपेक्षित मौलिक अधिकारों एवं समस्यागत प्रश्नों का समाधान दूसरों से मांगना चाहती है, जिनका सही समाधान उसके सिवा दूसरा कोई नहीं कर सकता। यह जीवन-दर्शन की रहस्यमयी भाषा है, विश्व की हर नारी को इसे समझना है। अब अपनी खुद की आंख मूंदकर केवल इधर-उधर सुनी-सुनाई बातों के अंधकार में नहीं चला जा सकता। जो कुछ भी करना है अपनी खुद की आंखों से देख कर करना है। बाहर के ही नहीं, अपने अन्तर के ज्ञान चक्षु खोलकर अपने परिवार एवं समाज को देखना है। जो माता-पिता सास-ससुर, पति, जेठ, देवर, जेठानी, देवरानी, ननद, पुत्र, पुत्री नौकर, पड़ोसी अन्य रिश्तेनातेदार आदि के रूप में दूर-दूर तक फैला हुआ है, यहाँ तक ही नहीं, भारतीय संस्कृति के अनुसार पशुपक्षी तक भी परिवार के अंग है। उनके भरण-पोषण का दायित्व भी गृहस्वामिनी पर है। इसी व्यापक दायित्व के आधार पर भारत के उदारचेता महर्षियों ने कहा है--"न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणीगृहमुच्यते"। इंट, पत्थर चूना गारा आदि का बना घर असली घर नहीं है। असली घर तो गृहस्वामिनी गहिणी है, जो घर की ज्योति है। इसी के प्रकाश में गृह, गृह के रूप में परिलक्षित होता है। अन्यथा चुहों के द्वारा अपने बसेरे के लिए निर्मित बिल में और मानव के घर में क्या अन्तर है ? नारी को केवल किसी एक मोर्चे पर ही काम नहीं करना है। पुत्री, भगिनी, पत्नी और माता आदि के रूप में अनेक केन्द्रों पर उसे गुरुतर दायित्व को वहन करना है। उसे एक अच्छी पुत्री, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी और एक सर्वश्रेष्ठ अच्छी माँ बनना है। और सर्वत्र अपने उक्त पदों की गरिमा की आकर्षक मुद्रा अंकित करनी है। किन्तु उक्त पदों में एक महत्वपूर्ण पद है, जिसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के भावों में और महर्षि वाल्मीकी के शब्दों में जन्मदात्री माँ--"स्वर्गादपि गरीयसी" है, अर्थात् स्वर्ग से भी बढ़कर है। वह इतिहास प्रसिद्ध माँ मदालसा है, जो अपने नवजात पुत्रों को शुद्ध, बुद्ध निरञ्जन, निर्विकार-स्वरूप उच्च जीवन की स्मृति दिलाते हुए लोरी गा रही है "शुद्धोसि बुद्धोसि निरञ्जनोसि, संसार माया-परिजितोसि।" स्पष्ट है, माँ मदालसा की लोरी सुननेवाले पुत्र कभी गलत नहीं हो सकते । संसार की भोग-लिप्सा रूप माया उन्हें कैसे स्पर्श कर सकती है? आज के विकृत मन-मस्तिष्क के भटकाव से अपनी संतानों को बचाना है, तो आज की माँ को मदालसा बनना होगा। इसके अतिरिक्त कल्याण का कोई मार्ग नहीं है--"नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।" परिवार, समाज एवं राष्ट्र के कल्याण के लिए आज की महत्त्वपूर्ण अपेक्षा है, नारी जाति को प्रारम्भ से सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत बनाया जाए, ताकि वह अपने सामाजिक दायित्वों को यथोचित रूप में समझ सके और समय पर निर्वहण कर सके। वह सामाजिक या धार्मिक सभी प्रकार के अन्ध-विश्वासों, पाखण्डों तथा जीर्ण-शीर्ण कुरूप रूढ़ियों से मुक्त होकर लोकमंगलकारी यथार्थ सत्य का बोध स्वयं प्राप्त करे और दूसरों को भी कराए। एक सुशिक्षित संस्कार संपन्न नारी सृष्टि-चक्र का नाभिकेन्द्र है, जिसमें जीवन निर्माण के सहस्राधिक आरक ओतप्रोत है। नाभिकेन्द्र-धुरी के सुदृढ़ होने में ही चक्र की गति है। गति ही निर्माण है और निर्माण ही आनन्द मंगल का अक्षय स्रोत है। मानवता की मंगलमूत्ति : सजग नारी २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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