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________________ पर, ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ सहज ही हो गया हो? अनेक झंझावातों, कटु-मदु अनुभूतियों, पारस्परिक चिन्तन की समस्याओं एवं समयोचित परिवर्तन की जटिलताओं के मध्य से उन सभी देवाधिदेव सर्वज्ञदेवों को गुजरना पड़ा है--जिनकी स्मृतिमात्र से जन्म-जन्मान्तरों के सुकृत संचित हो जाते हैं। प्राण में निर्जन अरण्य-सी मौन एकाग्रता समा जाती है। अह्लाद के कोटिशः श्रद्धा के मंगलद्वार नयन-मन में खुल जाते हैं। अतएव उस सांर्षिक महायात्रा पर उसके परिवर्तित मूल्यों के मानदण्ड पर एवं परिवर्तन की समयोचित आवश्यकता पर एक विहंगम दृष्टिपात करना नितान्त आवश्यक है। जैन पौराणिक गाथाओं के अनुसार आदिम मानव की स्थिति अर्धपशु अथवा अर्धमानव की तरह थी। कन्द, मूल, फल से जीवन-यापन करना और आरण्यक मनोवृत्तियों के साथ ही एक दिन जीवन-लीला का समाप्त हो जाना उसकी नियति थी। यह उस समय का एक चिरागत अल्पसंख्यक समाज था, किन्तु कालक्रमानुसार शनैः शनैः उसकी जनसंख्या में वृद्धि होने लगी और आहार के साधनों में कमी आने लगी, विग्रह और कलह से जन-जीवन अशान्त होने लगा। अरण्य की मनोहारी सुषमा उस काल में समाप्त-प्रायः हो गई थी। आदिम मानव के जीवन-संघर्ष की प्रारम्भिक यात्रा ने सर्वत्र हाहाकार मचाना आरम्भ कर दिया। क्षुधात जनता के उदर में सारे पत्र, पुष्प और फल समा गये थे, भयंकर अकाल की विकराल अग्नि की लपटें नित्य-निरन्तर विस्तार पाती जा रहीं थीं। कुलकर अथवा कुलक नेता असमंजस की स्थिति में थे। भूमि एवं पर्वत श्रेणियों के वृक्षसमूह नष्ट हो रहे थे और हरीतिमाएं सूर्य के मंगल गान से उदित नहीं हो रही थीं। धरती की छाती में दरारें पड़ गई थीं और दैत्याकार मानव कृशकाय हो गया था। मानव-जीवन के प्रारम्भिक संघर्ष का यह युग त्राहित्राहि कर रहा था। दिग्भ्रमित मानव-समुदाय के समक्ष सुरक्षा का कोई उपाय न था। यह एक निर्विवाद सत्य है और इतिहास के पन्ने इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि जब भी मानवीय अस्तित्व का विलोप होने लगता है अथवा दिग्म्रान्त स्थितियाँ उत्पन्न होने लगती हैं--एक महानायक जन्म लेता है अथवा उसे यं कहें कि मानवसमह की असीम शक्ति एकत्रित होती है और एक प्राण-पुरुष उनके बीच से उठ खड़ा होता है। काल के इस व्यापक सत्य को सभी धर्मों ने विभिन्न शब्दावलियों के द्वारा स्वीकार किया है। इतिहास का एवं मानव विकास का यह एक अनुभूत सत्य है, जिसे कहीं से नकारा नहीं जा सकता। भौतिकवादी विचारक भी प्रकारान्तर से इस मत को स्वीकार करते हैं। आदिम मानव के उस विकास-युग में भी एक युवक ऋषभकुमार बड़ी गंभीर एवं तीक्ष्ण दृष्टि से समय की विकराल स्थिति को देख रहा था। यहाँ उन्हीं ऋषभदेव की बात कही जा रही है, जिन्हें जैन-परम्परा का आदि तीर्थकर माना जाता है। युवक ऋषभकुमार मनुष्य की आदिम प्रवृति को अपनत्व और स्नेह भरी दृष्टि से निहार रहा था। अज्ञान एवं प्रमाद में रत मानव की मुक्ति के लिये वह व्यग्र हो उठा। पाशविक प्रवृति के मानव को चेतनाशील बनाने का उन्होंने व्रत लिया। देवत्व तथा मानवता की प्राण-प्रतिष्ठा करने को वे व्यग्र हो उठे। __ मनुष्य की आवश्यकतायें दैनंदिन बढ़ती जा रहीं थीं। क्षुधित मानव-समुदाय में संचय-वृत्ति का भाव पनपने लगा था। अब वह पक्षियों की तरह स्वतंत्र विचरण नहीं कर पाता था। यह एक अकाट्य सत्य है कि जब भी कोई सांघर्षिक काल विघटन की प्रक्रिया में अपने मान-मूल्यों का अन्वेषण करता है। अवश्यंभावी रूप से सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मर्यादायें बीजभाव में अवस्थित हो जाती हैं। भगवान् ऋषभदेव का काल इसी प्रकार के ऊहापोहों के मध्य जन-मानस में अवस्थित था। पूर्व की तरह मानव की निश्छल, निष्कपट व सहज मनोवृत्तियाँ समाप्त प्रायः हो गई थी और वह पारस्परिक वैमनस्य, घृणा, तनाव व संघर्ष का शिकार हो गया था। अपराध वृत्तियाँ सिर उठाने लगी थीं। भगवान् ऋषभदेव जैसा महान कर्मयोगी इस बिखरती हई मानवीय चेतना को मौन हो कर नहीं देख सकता था। अतएव उन्होंने समस्त मानव समुदाय को श्रम-शक्ति से परिचित कराया एवं श्रम के पश्चात् श्री की उपलब्धि का मंगल संदेश जन-मानस में प्रचारित किया। वस्तुत: कृषि का आदर्श उपस्थित करने वाला वह आदि पुरुष था। और भी स्पष्ट ढंग से अगर इसे व्याख्यायित करना हो, तो हम कह सकते हैं कि अगर ऋषभदेव १८८ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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