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________________ किन्तु, बीसवीं शताब्दी ने एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखा है। आज कोई कमजोर राष्ट्र स्वयं को असहाय एवं निराधार महसूस नहीं करता। उसका कष्ट अन्तर्राष्ट्रीय कष्ट बन गया है। एक छोटे से राष्ट्र के संकट की घटना केवल उस तक ही सीमित नहीं रहती है। गरीबी-निवारण, रोग-निवारण, जैसे कार्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से हो रहे हैं। आज बढ़ती हुई आबादी, संहारक अणुशस्त्र, क्षय, चेचक, मलेरिया आदि भीषण रोग, इत्यादि विषयों पर सारे राष्ट्र मिलकर विचार करते हैं। और इनसे मुक्ति के उपायों की एवं साधनों की सामूहिक रूप से खोज करते हैं। उक्त सारी अच्छाइयों के बावजूद आन्तरिक संघर्ष का एक दूसरा प्रश्न अतीव विकट होता जा रहा है, उस पर भी ध्यान देना आवश्यक है। ठीक है, राष्ट्र की सीमाओं के प्रश्न कम हो गए हैं। आजादी की सुरक्षा के खतरे कम हो रहे हैं। राज्य विस्तार के हेतु होनेवाले युद्ध नाममात्र के लिए बचे हैं। किन्तु, आंतरिक संघर्ष सारी दुनिया में विकट-से-विकटतर रूप लेता जा रहा है। यदि निकट भविष्य में उक्त स्थिति नियंत्रित नहीं हो सकी, तो मानव जाति का भविष्य खतरे से खाली नहीं है। परस्पर विचारों में मतभेद हो सकते हैं। जन-कल्याणी नीति निर्धारण में अन्तर हो सकता है। निर्धारित नीति के कार्यान्वयन की पद्धति में भी अन्तर हो सकता है। किन्तु, अपने राष्ट्र के निर्माण में जिन्होंने अपना खूनपसीना एक किया है, उनमें परस्पर शत्रुता जैसी दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। यह माना हुआ ही नहीं, जाना हुआ सत्य है, कि बाहर का शत्रु उतना कहर नहीं ढ़ा सकता, जितना कि घर का शत्रु ढ़ा सकता है। जब कि पड़ोसी राष्ट्रों के साथ ही नहीं, दूसरे महाद्वीपों, खण्डों एवं उपनिवेशों तक के साथ मैत्री का हाथ बढ़ाया जाता है; इस विश्वास के साथ कि जितने अधिक मित्र उतना ही अधिक विकास, तो अपने ही राष्ट्र के दो विरोधी दलों के साथ मैत्री का प्रयास क्यों नहीं किया जाता। गुट-निरपेक्ष राष्ट्र होने के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है, उतना पार्टी-निरपेक्ष शासन क्यों नहीं हो सकता है। उसके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए। कोई भी दल शासन करे, उससे अच्छाइयों की अपेक्षा की जाती है। घोषणापत्रों में राष्ट्र को खुशहाल बनाने का वायदा करके ही दल सिंहासनरूढ़ होने का प्रयत्न करते हैं। हो सकता है, लोक कल्याणकारी नीतियों के कार्यान्वयन की पद्धति उचित न हो, इस कारण जैसा चाहिए वैसा सुखद परिणाम न आने पाए। अकुशल कर्मचारी-गण के द्वारा विपरीत स्थिति का भी निर्माण हो सकता है। हर कोई पद्धति सम्पूर्ण रूप से निर्दोष होती ही है, यह सम्भव नहीं है। सामान्य मनुष्यों की ही बात नहीं, मनुष्य के दोष-दर्शन की दृष्टि ने ईश्वर एवं भगवान कहे जानेवाले महापुरुषों के कार्यों की समीक्षा करते हुए उनमें भी कमियाँ देखी हैं। अतः यदि कोई दल दुसरों को पूर्ण एकान्त दोषी और स्वयं को पूर्ण एकान्त निर्दोष होने का दावा करने का साहस करता है, तो उसे मानव की भूमिका को पार किया हुआ अतिमानवीय मानव ही समझा जाना चाहिए। इसी बात को लेकर हमारे एक प्राचीन आचार्य ने एक महान स्पष्ट बोध दिया था-- "दृष्टं किमपि लोकेऽस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम्।" संसार में कोई भी ऐसी बात या स्थिति देखने में नहीं आई, जो सर्वथा निर्दोष या सर्वथा गुणरहित हो । गीता के उद्गाता श्रीकृष्ण ने भी कहा है-- "सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृताः।" मानव के जितने भी आरंभ हैं; समुद्यम हैं एवं प्रयत्न हैं, वे दोष से उसी प्रकार से संयुक्त रहते हैं, जिस प्रकार अग्नि धूम से युक्त होती है। १६० सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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