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________________ "अज्ञान -- तिमिरान्धानाम्, ज्ञानांजन -- शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येत तस्मै सद्गुरवे नमः॥" अन्तर्ज्ञान-चक्षु पर अज्ञान-तिमिर के छा जाने से अंधेरा आ जाता है, सत्य-असत्य का, हित-अहित का, संसारमोक्ष का पता नहीं लगता है। परन्तु, गुरु के ज्ञानोपदेश की अंजन-शलाका से तिमिर का जाला हट जाता है, तो ज्ञान-नेत्र खुल जाते हैं। इसलिए ज्ञान-ज्योति प्रदाता सद्गुरु को नमस्कार है। सद् गुरु वह है, जो आत्म-ज्योति को जगाता है। गुरु वह है, जो सोयी हुई चेतना को जागृत कर देता है। गुरु वह है, जो आत्मा में परमात्म-ज्योति के दर्शन कराता है। गुरु वह है, जो अनन्त-अनन्त काल से सुषुप्त सत्य को जगा देता है। यह अन्तर्-जागरण ही सम्यक्त्व है। जिसने आत्म-ज्योति को जगाया, आत्म-स्वरूप का बोध कराया, वही गुरु है। उसका बदलना क्या ? गंभीरता से सत्यलक्षी चिन्तन की अपेक्षा है। पक्ष-मक्त स्पष्ट चिन्तन ही सत्य को उजागर करता है। १५० सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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