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________________ जो लोग दूर-दूर के प्रदेशों से तीर्थक्षेत्रों में आते हैं, वे अपने साथ ऐतिहासिक गरिमा के सुनहरे स्वप्न लेकर आते ह । और, जब यहाँ उन्हें उनकी अपनी निर्धारित भावना के विपरीत वातावरण मिलता है, तो वे सहसा खिन्नमनस्क हो जाते हैं। फलतः लौटते समय तीर्थक्षेत्रों की उदात्त गरिमा के स्थान पर, वहाँ की दयनीय स्थिति का ही नग्न चित्र अपनी स्मृति में लेकर जाते हैं। आज समाज को इस स्थिति पर व्यापक रूप से विचार करना चाहिए। और, सामूहिक रूप से सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर इसे दूर करने के दूरगामी कार्यकारी उपाय खोजने चाहिए, जिससे गरीबी के साथसाथ राष्ट्रव्यापी दीनता भी दूर की जा सके। साथ ही एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है। जो अपंग है, असहाय है, जिन्हें सेवा की सही अपेक्षा है, सेवा एवं सहयोग के अभाव में सम्भव है, जिन्हें एक दिन जल्दी ही मर जाना पड़े, आत्म-हत्या करनी पड़े, उनके कल्याण के लिए, उनके यथोचित सन्मान की सुरक्षा का भाव रखते हुए कुछ न करना भी मानवता के लिए एक बहुत बड़ा कलङ्क है। राष्ट्र एवं धर्म का अपमान है। संस्कृति का घोर पतन है। अतः सर्वत्र विवेकपूर्वक चलने की आवश्यकता है। भीख के रूप में व्यर्थ का सहयोग देकर दैन्य नहीं बढ़ाना है, न प्रचलित दान के नाम पर गलत परम्परा का पोषण करना है, और न हृदयहीन शुष्क तर्कवाद के आधार पर वास्तविक असहाय एवं जरूरतमन्दों को ही तिरस्कृत करना है। दान की मनोवृत्ति १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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