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विश्व के अनन्त अनन्त प्राणी अनन्त काल से बहुत लम्बी यात्रा करते आ रहे हैं। इस यात्रा में उन्हें अनेक बार अच्छे साधन भी मिले हैं। स्वर्ग में उन्हें बहुत वैभव मिला, भोग-विलास के साधन मिले, पर उससे बना क्या ? क्या वैभव के बल पर वे अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो सके ? वैभव पाने के बाद भी वे अपना विकास नहीं कर सके, संसार में भी भटकते रहे। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पास साधनों की क्या कमी थी ? छह खण्ड का राज्य उसे प्राप्त था। सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर उसका एकाधिपत्य था। पर इससे क्या उसे कुछ शान्ति मिली? इतना पाने पर भी उसकी तृष्णा की आग बुझी नहीं, अपितु अधिकाधिक भड़कती ही गई, भोगों की लालसा परेशान ही करती रही। आखिर इसका परिणाम यह आया कि वह पतन के महागर्त में जा गिरा, और मरकर सातवें नरक में जा पहुँचा। जरासंध और रावण जैसे शक्ति सम्पन्न सम्राटों के पास वैभव की क्या कमी थी ? रावण की लंका तो सोने की बनी हुई थी और वह आकाश में पुष्पक विमान से उड़ता था । पुराणों में बताया गया है कि उसकी पहुँच सूर्य तथा चन्द्रलोक तक भी थी परन्तु इस वैभव और शक्ति से इन जरासंधों और रावणों को मिला क्या? अन्याय और अत्याचार के द्वारा जब तक वहाँ रहे धरा पर हाहाकार मचाते रहे, स्वर्गसी धरती को नरक बनाते रहे, और अन्त में स्वयं नरक में जा पहुँचे । इतना विशाल वैभव पाया, पर पीछे क्या छोड़ गए ? और तो क्या उनका नाम भी कोई आदरपूर्वक नहीं लेता। यदि रावण का कंस का या जरासंघ का कभी प्रातःकाल नाम सुनने में आ जाए, तो सहसा मनुष्य का मन घृणा और नफरत से भर जाता है उसे किसी अनिष्ट की आशंका होने लगती है। इसका एकमात्र कारण यह है कि वैभव के प्राप्त होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता । सत्कर्म करने के लिए जीवन में सद्बुद्धि एवं विवेक का जागृत होना आवश्यक है । यदि वैभव के साथ विवेक नहीं है, तो वह वैभव विनाश का ही कारण बनेगा । महत्त्व वस्तु के प्राप्त होने का नहीं, महत्त्व है -- उसके सदुपयोग का । यह मनुष्य-जीवन बहुत बड़े पुण्य से मिला है । श्रमण भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था- "दुल्लहे खलु माणुसे भवे" मनुष्य जन्म निश्चय ही दुर्लभ है। आचार्य शंकर ने भी कहा है "नरत्वं दुर्लभं लोके "इस लोक में मनुष्यत्व का मिलना दुर्लभ है। सन्त तुलसीदास भी कहा है कि बड़े भाग्य से मनुष्य का तन मिला है। देवताओं, मुनियों और ऋषियों ने मानव-जीवन पानेवाले व्यक्ति के भाग्य की सराहना की है
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" बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर नर मुनि सब दुर्लभ गावा।"
मानव जीवन का कितना अधिक महत्त्व है। अनन्त अनन्त पुण्य के फल-स्वरूप प्राणी को यह मनुष्यजन्म मिलता है । पाँचों इन्द्रियाँ और मन प्राप्त हुआ है। इन्द्रियों का मिलना कोई मामूली बात नहीं है। मनुष्य की यदि कोई एक इन्द्रिय भी अपना काम करना बन्द कर दे, तो उसका अभाव खटके बिना नहीं रहेगा। कल ही एक बहन आई थी। उसे स्वाध्याय में बहुत रस आता है। स्वाध्याय में उसकी बहुत अभिरूचि है। मेरे साहित्य को उसने पढ़ा है। कल ही वह कह रही थी कि आपका 'अध्यात्म प्रवचन' बहुत पसन्द आया । बहुत अच्छी पुस्तक है। आपके प्रवचन सुनने की बहुत इच्छा है। परन्तु कर्णेन्द्रिय ने काम करना बन्द कर दिया है। कुछ भी सुन नहीं सकती। इसका उसके मन में बहुत खेद था। कितने मूल्यवान् हैं ये छोटे-से कान आँख का भी कितना महत्त्व है। आँख के बिना दिन में भी अंधेरी रात हो जाती है। व्यक्ति कुछ भी देख नहीं सकता। साधक के लिए भी आँख का कम महत्व नहीं है। इसके बिना वह जीवों की रक्षा कैसे करेगा, शास्त्राध्ययन कैसे कर सकेगा ?
इसी राजगृही के सम्राट् श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार का वर्णन आगम में आता है। उसने तीव्र वैराग्यभाव से श्रमण भगवान् महावीर के निकट दीक्षा ग्रहण की। उसी रात्रि को सबसे छोटा साधु होने के कारण उसे शयन का स्थान सब साधुओं के अन्त में मिला। जमीन पर सोने का यह पहला अवसर था। नींद नहीं आ रही थी। कभी कुछ आती भी तो अन्त में आसन होने से अंधेरे में आने-जाने वाले साधुओं के चरण-स्पर्श से वह बीच-बीच में टूट जाती। रात भर नींद नहीं आई। मेघ का मन संयम से उखड़ गया। प्रातः वह भगवान् के पास गया, प्रभु से निवेदन किया कि में संयम के इस बेतुके कष्ट को सह नहीं सकता। मैं अपने घर जाना चाहता हूँ ।
मन के जीते जीत
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