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________________ इसका यह अर्थ तो नहीं कि घंटों ही दर्पण के सामने खड़े होकर अपने को कामदेव के रूप में ढालने का हास्यास्पद प्रयत्न किया जाये। जिन्हें जनसेवा के क्षेत्र में काम करना है, उन्हें तन की सुन्दरता के इंस मोह से अमुक अंश में मुक्त होना ही होगा। सेवा का मद : सेवा का अहम् भी व्यक्ति को कहीं का नहीं रख छोड़ता। मैंने ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा है, जो कभी किसी को थोड़ा-बहुत सहयोग दे देते हैं, तो हर जगह उसका खुद ही ढोल बजाते फिरते हैं। यह अच्छे काम की नहीं, अच्छे नाम की भूख है। इस भूख की पूर्ति होना बड़ी मुश्किल बात है। पता नहीं, क्या हो गया है आज की दुनिया को! 'नेकी कर कुवे में डाल' का पुराना सिद्धान्त तो वस्तुतः किसी अन्ध कूप में ही डाल दिया गया है। सेवा क्या करते हैं, सेवा के नाम पर दूसरों का अपमान करते हैं। कितनी ही बार आपने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना होगा, "अरे भाई साहब, क्या बताऊं? मैं ही था, जो उसे बर्बाद होने से बचा सका। मैं न होता तो सचमुच ही उसका बेड़ा गर्क हो गया होता। वह बच सकता था भला! कोई भी तो नहीं था उसे तब बचाने वाला।" कितना अहम् है मनुष्य को अपने तुच्छ-से सेवा कर्म का। ऐसे लोगों को पता होना चाहिए, हर आदमी का अपना भाग्य होता है। उसका अपना भाग्य ही मूल में बचाने वाला है। तुम तो एक निमित्त बन गये हो। गंगा को आना होता है, भागीरथ को लाने का यश मिल जाता है। और, यह भी क्या पता कि तुने इस सेवा के रूप में पूर्व जन्म का उससे लिया गया कोई अपना पुराना ऋण ही चुकाया हो तो! भारत का दर्शन पुनर्जन्मवादी है। अतः यहाँ अनेक जन्म-जन्मान्तरों से चले आये कभी पुराने ऋण भी चुकाये जाते हैं। सेवक जितना विनम्र होगा, उतना ही महान् होगा। फलों से लदे वृक्ष धरती की ओर झुक जाते हैं। बरसने वाली घटाएँ ऊँचे आकाश से नीचे उतर कर धरती पर बरसती हैं। माँ-बाप अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को उंगली पकड़ कर चलाते हैं, तो देखा है कितने नीचे झुकते हैं ? प्रभुता का मद: प्रभुता का मद भी बड़ा भयंकर होता है। सिंहासन पर बैठते ही आदमी भूल जाता है कि कल तक तु भी तो सबके साथ धरती पर बैठने वालों में से ही एक था। बंगला कहावत है--"जो भी लंका जाता है, रावण हो जाता है।" आये दिन नम्रता का, विनय का, जनसेवक का उद्घोष करने वाले सिंहासन पर पहँचते ही अकड़ कर नीरस सूखे काठ हो जाते हैं। पहले के प्रशासक, जिनकी स्वयं आलोचना करता रहा है, जल्दी ही स्वयं भी उन्हीं के पथ पर दौड़ने लगता है। पीछे नहीं, उनसे आगे ही निकल जाना चाहता है। याद रखिये, सिंहासन स्वामित्व के लिए नहीं, सेवा के लिए है। यदि कोई सस्नेह यह विहित सेवा नहीं कर सकता है, तो उसे सिंहासन पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है। सिंहासन पर बैठने के लिए राजा राम बनना होगा, राक्षस रावण नहीं। सिंहासन स्थायी नहीं हैं। समय पर चक्रवर्तियों के सिंहासन भी डोल जाते हैं, इन्द्रासन भी खाली हो जाते हैं। प्रभुता चञ्चल है। बिजली से भी अधिक चञ्चल। चमकते देर नहीं, तो बुझते भी देर नहीं। पानी का बुलबुला कब तक पानी पर तैर सकेगा? कागज की नाव कब तक जल में तैरती रहेगी? संसार में हर चीज क्षण-भंगुर है। 'सर्व क्षणिक' का बुद्ध-घोष गलत नहीं है। अतः सिंहासन पर बैठते समय बहुत सम्भलकर बैठना चाहिए। सिंहासन पर बैठना बुरा नहीं है। बुरा है, सिंहासन का अहम् सिर पर लाद कर बैठना। बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है, इस तरह बैठने वालों की। बाहर में लगता है, यह महानुभाव कुर्सी पर बैठे हैं। खद भी वह ऐसा ही समझता है। पर, वास्तव में वह कुर्सी पर नहीं बैठा है, कुर्सी ही उस पर बैठ गयी है। दिमाग पर कुर्सी का अहं जो सवार है। कुर्सी यश नहीं देती है। कुर्सी पर से किये जाने वाले सेवा-सत्कर्म ही यश देते हैं। यह बात हर कुर्सी पर बैठने वाले को ध्यान में रखने जैसी है। ७२ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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