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________________ सत्य हरिश्चन्द्र भूपति ने घंटों समझा कर, क्षुब्ध प्रजा को शान्त किया, राजमहल लेने को तत्क्षण, कौशिक यषि ने दर्श दिया। राजा, रानी, रोहित ने सप्रेम, किया ऋषि करत विश्वामित्र चकित, अति विस्मित हुए देख निज अभिनन्दन । हरिश्चन्द्र ने कहा--- "हमें आशीष दीजिए करुणा कर, पूर्ण सफलता पाएँ अपने, अंगीकृत प्रण के पथ पर । प्राणों से भी प्यारी तुमको, प्रजा समर्पित करता हूँ, आशा है सुत - सम पालेंगे, आज्ञा दें, बस चलता हूँ।" विश्वामित्र ग्लानि के कारण, ऊपर शिर न उठा पाये, स्तब्ध मौन ही रहे, नृपति को, उत्तर कुछ न सुना पाये । सोचा था-"भूपति को जाते, अपमानित कर रोकूगा, रानी या सुत वस्त्राभूषण, पहने होंगे, टोगा।" लज्जा की निर्वृत्ति - हेतु पर, यहाँ एक ही चीवर था, वह भी फटा - पुराना सीमित, केवल तन ढंकने भर था ! कौड़ी भर धन पास नहीं था, तीनों ही थे नग्न - चरण, कौशिक को कहने की खातिर, मिला नहीं कुछ भी कारण ! कौशिक थे, चुप हरिश्चन्द्र ने, अपना निश्चित पथ पकड़ा, जय-जय ध्वनि करता पीछे से, आकुल जन-सागर उमड़ा ! शान्त - धीर • गति चलते - चलते आए पुर की सीमा पर, अलग - अलग दो ऊँचे टीले, देख चढ़े रानी, नृपवर । राजा के टीले को आकर, पुरुषों के दल ने घेरा, महिला - दल ने रानीजी के, टीले का सोचा फेरा ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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