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सत्य हरिश्चन्द्र
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पक्षाधिक बीता तो चिन्ता - चक्र हृदय को चीर गया, स्वर्ण - महल में मन न लगा, तब लताकुज का मार्ग लिया। सखी मल्लिका को सँग लेकर रानी उपवन में आई, लता - कुज में शिला - पट्ट पर बैठ सखी से बतलाई ॥
"यही कुंज है, जिसमें पति के संग अनेकों दिन बीते, हर्ष, मोद, आमोद सभी कुछ पूर्ण किये बस, मन चीते ! आज वही सुख - कुज, कुंज हा, मुझे काटने आता है, शीतल मन्द सुगन्ध पवन का स्पर्श न मुझको भाता है।
सच है, पति के बिना सर्वथा पत्नी की दुनिया सूनी, अन्तस्तल को चीर • चीर कर व्यथा जागती दिन - दूनी । मैं तो बड़ी अभागन हूँ, जो स्वयं निकाला निज पति को, सूर्यवंश की महिमा का बस भूत चढ़ा था मम मति को।
स्वर्ण - पुछ मृग भला कहाँ से, किस वन से पति लाएंगे, सम्भव हो न असम्भव घटना, वृथा क्लेश ही पाएँगे।
गीत
पतिदेव, आज तुम कहाँ दिल मेरा बेकरार है,
रस-हीन शून्य विश्व है, यह जन्म भी असार है ! अन्दर हृदय में शोक की ज्वाला प्रबल धधक रही,
बाहर वसन्त की वृथा छाई हुई बहार है । दिल खण्ड-खण्ड हो गया, सुख स्वप्न भंग हो गया,
जब से वियोग • वज्र का पड़ने लगा प्रहार है ।। सूने वनों में भूख की और प्यास की महती व्यथा,
सहते हैं आप जो, मेरे दुर्भाग्य की वह मार है।
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