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सत्य हरिश्चन्द्र भूपति ने सानन्द स्नेह से, किया क्षमा, निर्जर को भी, जय-जय ध्वनि से जन समूह ने, गुजादिया अंबर को भी ! मरघट - स्वामी भंगी आया, उतरे नृप सिंहसन से, भूल न होती कभी नीति के, पालन में नर - सज्जन से । हाथ जोड़कर कहा श्वपच ने, क्षमा कीजिए प्रभु मुझ पर, किया बुरा व्यवहार सर्वदा, नारी ने, मैंने तुम पर । भूपति बोले हँस कर-"स्वामी ! यह क्या उल्टी कहते हैं, स्नेही, मृदुल, दयानिधि स्वामी, कहाँ आप-से मिलते हैं ? यह प्रताप, सब एक तुम्हारी, करुणा का ही मृदु फल है, संकट में की रक्षा मुझको अपना, कितना दृढ़ बल है ? क्रुद्ध स्वामिनी, किन्तु कृपा है, उनकी तो मुझ पर भारी, मरघट - रक्षक बना तभी तो हुआ सुयश का अधिकारी !" वद्ध विप्र नालायक सुत को, लेकर कम्पित - सा आया, तारा - द्वारा सत्कृत होकर, विस्मय अति मन में पाया। ब्राह्मण - सुत ने दीनभाव से, रानी के चरणों में गिरमाँगी क्षमा स्व-अपराधों की, लज्जा से था अवनत सिर ! "मैं पापी - निर्लज्ज, मूढ़ हूँ. कष्ट दिया तुमको अनुचित, क्षमा कीजिए जान न पाया, दुराचार से मन दूषित !"
शन्तमाव से तारा बोलो- "क्षमा कीजिए आप मुझे, ठीक समय पर आ न सकी मैं, झंझट ने छोड़ा न मुझे। आप बड़े हैं, स्वामी हैं, क्या दोष आपका हो सकता ? दासी का जीवन ही ऐसा, आदृत कैसे हो सकता? पिता आपके विपद • सहायक, उपकारी करुणा-सागर, भूल न सकती, सत्य - धर्म की, रक्षा की निज धन देकर !
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