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सत्य हरिश्चन्द्र
१६६ मैं हूँ दास, अतः मेरा निज, तन पर भी अधिकार नहीं, कैसे मर सकता हूँ, जब तक हटे, हाय ऋण - भार नहीं ! आत्म - घात है पाप भयंकर, धर्म - शास्त्र बतलाते हैं, आत्म-घात करने वाले नर, सद्गति कभी न पाते हैं।
हे भगवन् ! यह पाप मानसिक हुआ, आज मुझसे भारी, करना क्षमा, क्षमा के सागर ! दुःख में मति जाती मारी। अब तो मैं चाण्डाल-दास हूँ, कहाँ नृपति हरिश्चन्द्र रहा ? तारा औ' रोहित से मेरा, अब कैसा सम्बन्ध रहा ? मोह - विवश होकर, मैं पागल, भूल रहा हूं अपना पथ, धोखा देता हूँ स्वामी को, कहाँ भटकता मन का रथ ?" मोह - ग्रस्त हो गिरते थे नृप, किन्तु शीव्र ही स्वस्थ हुए, सत्य सूर्य फिर चमक उठा, घनघोर मोह - घन ध्वस्त हुए । "तारा ! जो कुछ हुआ, हुमा बस, अब रोने से क्या फल है? मरने वाला लौट न सकता, नियम प्रकृति का अविचल है । अब तो दिल पर पत्थर रख लो, धैर्य धरो, अन्त्येष्टि करो, मरघट का कर अर्ध कफन दो, अब न पुत्र पर दृष्टि करो। देखो उषा पूर्व में झलकी, सूर्य उदय होने वाला, लज्जा शेष बची है, वह भी कहीं विनष्ट न हो बाला ! अगर देख पहचान हमें ले, कोई तो फिर क्या होगा? ब्राह्मण-दासी, श्वपच-दास, यह रात्रि मिलन न भला होगा।"
"नाथ ! भूल जाते हैं, मैंने, कहा पूर्व ही कफन नहीं, 'दासी हूँ'-इतने में समझे, मर्म-व्यथा की हद न कहीं ? हाय, आपका पुत्र बुभुक्षित, भोजन तक भी नहीं मिला, आज मृत्यु, तन ढंकने को हा, मृतक-वस्त्र भी नहीं मिला ।"
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