________________
सत्य हरिश्चन्द्र
१६७ आज तुम्हारे एक वाक्य पर, निर्भर जीवन - गति मेरी, बोलो, जल्दी बोलो, देवी ! डोल रही है मति मेरी !" मरघट-रक्षक की इन अद्भुत, बातों को सुनकर तारा, खड़ी हो गई मूक स्तब्ध - सी, बही आँसुओं की धारा ! प्रकृति नटी ने इतने में ही, चमत्कार निज दिखलाया, विद्य त का आलोक प्रखरतर, वसुधा - मण्डल पर छाया ! स्पष्ट रूप से, दोनों ने ही, एक - दूसरे को देखा, भूपति सिहर उठे, तारा की, देख क्षीण तन की रेखा ! "तार ! तारा !! मम प्राणों का, प्यारा रोहित चला गया, चला गया क्या, मेरा जीवन हाय, धूलि में मिला गया !" पति-पत्नी दोनों ही सहसा, रोहित - शव से चिपट गए, एक बार तो हुए विमूच्छित, हन्त मृत्यु के निकट गए। जीवन - दाता सरस मेघ ने, शीतल जल - कण बरसा कर, पुनः चेतनारूढ़ किये तो, उठे अश्रु-जल बरसा कर । तारा, पति के चरणों में गिर, सिसक - सिसक कर रोती है, . नाथ ! नाथ ! कहती है, फिर-फिर शोक मूच्छित होती है। "नाथ ! शोक है, लज्जा है, किस मुख से अब बोले तारा, उचित नहीं सर्वस्व लुटा कर, हृदय द्वार खोले तारा ! रोहित - सा निधि मुझको सौंपा, किन्तु न रक्षा कर पाई, हँसता - खिलता लिया आपसे, आज लाश लेकर आई !
भूखा था वन में फल लेने गया, नहीं वह फिर लौटा, विषधर ने काटा, हा मेरा, भाग्य सर्वथा ही खोटा ! कैसा था दुर्भाग्य - पूर्ण दिन ? कैसा दुःख - दृश्य लाया ? नहीं पता किस भ्रप्ट जन्म का, पाप उदय में हा आया ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org