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सत्य हरिश्चन्द्र आज खिला जो फूल चमन में,
__कल उसको मुरझाना है ! आज खिली जो धूप तो कल को,
घन - अंधियारा छाना है । प्रात चढ़ा जो सूर्यः गगन में,
शाम हुए छिप जाना है ! अभी उठों जो लहरें जल में,
अभी उन्हें लय पाना है ! रात पड़ी जो ओस कमल पर,
हिलते ही ढल जाना है ! यह जीवन कागज की पुड़िया,
बूंद लगे गल जाना है ! चन्द रोज की जिन्दगानी पर,
क्यों पागल मस्ताना है ! कितना ही तू क्यों न अकड़ ले,
आखिर मरघट आना है ! कौन किसी का जग में, जिस पर,
__ यह सब झगड़ा ठाना है।
'अमर' सत्य पर तू बलि हो जा,
नाम अमर अपनाना है ! मस्तक में कुछ देर सिनेमा चला विरक्त विचारों का, आते - आते ध्यान हुआ निज जीवन के व्यवहारों का ! "तारा ! तेरे जैसी जग में विरल नारियाँ होती हैं, पति के कारण कष्ट उठा सुख - वैभव से कर धोती हैं।
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