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सत्य हरिश्चन्द्र
मेरे कारण तुम दुःख भोगो, सहन नहीं मैं
सूर्य बंश के तिलक ! तुम्हारी, संकट पूर्ण दशा
वन
कर सकती ।
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कैसी ?
फल खाकर करो गुजारा, भाग्यहीन माता कैसी ?"
रोहित बोला- "माता, तुम तो, पिछली बातें करती हो । मैं तो हूँ सानन्द व्यर्थ ही, तुम चिन्ता में मरती हो !"
वन मैं क्या है भीति ? वहाँ पर,
प्रकृति मोद बरसाती है, शीतल, मन्द - सुगन्ध - पवन है,
बड़ी ताजगी आती है ।"
"अपने पाटक के कितने ही,
बालक भी प्रति दिन जाते । नाना विधि क्रीड़ाएँ करते,
सरस मधुरतम फल खाते ।"
रोहित इसी तरह से प्रतिदिन,
वन में आता जाता है । पुष्प - चयन कर वन फल खाता, माता के प्रति
लाता है ।
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