SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International सत्य हरिश्चन्द्र मेरे कारण तुम दुःख भोगो, सहन नहीं मैं सूर्य बंश के तिलक ! तुम्हारी, संकट पूर्ण दशा वन कर सकती । - कैसी ? फल खाकर करो गुजारा, भाग्यहीन माता कैसी ?" रोहित बोला- "माता, तुम तो, पिछली बातें करती हो । मैं तो हूँ सानन्द व्यर्थ ही, तुम चिन्ता में मरती हो !" वन मैं क्या है भीति ? वहाँ पर, प्रकृति मोद बरसाती है, शीतल, मन्द - सुगन्ध - पवन है, बड़ी ताजगी आती है ।" "अपने पाटक के कितने ही, बालक भी प्रति दिन जाते । नाना विधि क्रीड़ाएँ करते, सरस मधुरतम फल खाते ।" रोहित इसी तरह से प्रतिदिन, वन में आता जाता है । पुष्प - चयन कर वन फल खाता, माता के प्रति लाता है । For Private & Personal Use Only १४६ www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy