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सत्य हरिश्चन्द्र
सूर्योदय से
लेकर करती
काम, घोर पीड़ा सहती ।"
माता के भोजन से भोजन, मुझको लेना उचित नहीं । मेरी उदर- पूर्ति के कारण,
जननी भूखी, ठीक नहीं ।"
आओ, कलियुग की सन्तानों, रोहित के दर्शन
कर लो,
मातृ - भक्ति का पथ अपना कर, अन्तर का कलि - मल हर लो !
बालक है, फिर भी है कितना, मातृ भक्त देखा तुमने । क्या इस गुण की शत- विभक्त भी, पाई है रेखा तुमने !
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बूढ़ा ब्राह्मण पुष्प चयन के --
लिए भेजता था प्रतिदिन | इधर-उधर से पुष्प सुगन्धित,
रोहित लाता था गिन गिन ।
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एक वार फूलों की
धुन में,
रोहित जा पहुंचा वन में । देख पुष्प, फल सरस मनोहर,
हुआ हर्ष - पुलकित मन में ।
पक्व, मधुर फल तोड़े खाए,
इधर
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उधर वन में घूमा ।
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