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सत्य हरिश्चन्द्र
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किन्तु शीघ्र सँभली मानस में दौड़ी साहस की बिजली, हाथ जोड़ कर, नम्र भाव से करी प्रार्थना नपी - तुली !
"भगवन् ! क्या ऋण की कहते हैं ? ॠण अवश्य ही देना है, भला आप से सन्तों का ऋण मार, नरक क्या लेना है ? अगर पास कुछ होता तो इन्कार नहीं था देने में, अश्रु मात्र हैं शेष, समर्पित चरणों के धो लेने में ।
जबकि राज्य के देने में भी देर न की, अब क्या करते ? आप देखिए, रिक्त - हस्त हैं, करते भी तो क्या करते ? करुणा सागर ! क्षमा कीजिए, अवधि और कुछ दे दीजे, व्याज सहित फिर सभी दक्षिणा कौड़ी - कौड़ी ले लीजे !
आप तपस्वी, कोपानल से भस्म हमें कर सकते हैं, पर, इससे क्या झोली अपनी ॠण-धन से भर सकते हैं ?" विश्वामित्र गर्ज कर बोले- “धन्य धन्य तुम भी बोली ? धूर्त शिरोमणि पति - पत्नी की मिली खूब सुन्दर टोली !
पास तुम्हारे है कि नहीं है, मुझको इससे क्या मतलब ? अवधि एक पल की न बढ़ेगी, अभी दक्षिणा लेनी अब ।” "आप सन्त हैं, बिना बात ही क्यों इतने क्रोधित होते ? चिर - संचित निज तपःसाधना क्यों अशान्त बनकर खोते ।
आप महाजन, ऋणी आपके हम, सम्बन्ध मधुर कितना, कुशल प्रश्न तो रहा दूर, कर क्रोध न करें विकृत इतना | पास हुए पर अगर न देते फिर था क्रोध उचित करना, व्यथित-हृदय को कटु-वाणी से उचित न और व्यथित करना ?"
"मैं तुमसे ऋण माँग रहा हूँ, नहीं ज्ञान - भिक्षा लेता, करुणावश ही चुप हैं, वर्ना भस्म कभी का कर देता ।
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