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सत्य हरिश्चन्द्र
गीत
मनुष्य बन लगा दौड़, विषयों से मुख मोड़;
भूल न जाना, ओ प्राणी, भूल न जाना ! जीवन है इक लहर सिन्धु की, इत आए, उत जाए; धर्म - कर्म कुछ किया न जिसने, वह पीछे पछताए;
नरक में मिले ठौर, पावे दुःख अति घोर;
मन कलपाना, ओ प्राणी, भूल न जाना ! पाकर कुछ चाँदी के टुकड़े, काहे जोर दिखाए; कौड़ी संग चले कब तेरे, किस पर शोर मचाए;
आवे कोई द्वारे दुःखी, शीघ्र बनाना सुखी;
जग - यश पाना, ओ प्राणी, भूल न जाना ! बड़े - बड़े राजा - महाराजा, आए जग पर छाए; लगा काल का चपत अन्त में ढढे खोज न पाए;
तू तो सीधा बन चल, काहे करे कल - कल;
गर्व नशाना, ओ प्राणी, भल न जाना ! भक्ति-भाव से झूम-झूम कर क्यों न ईश गुण गाए; शुष्क हृदय में अमर प्रेम का क्यों न सुरस बरसाए;
पाप - मल सारे छंटे, दुख - द्वन्द्व सभी हटें;
'जिन' बन जाना, ओ प्राणी, भूल ना जाना ! हरिश्चन्द्र अपमानित होकर वापस ही घर लौट गए; एक नमूना देख लिया बस, आगे और कहीं न गए। कुचल दिया मन के कण-कण को इस अत्युग्र अवज्ञा ने; बड़ी विकट उलझन में डाला, ऋण की क्रू र समस्या ने!
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