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सत्य हरिश्चन्द्र
आज आपकी यह सामग्री, शेष रहेगी कल दिन को, इसी तरह से जुड़ते - गुड़ते, जुड़ जायेगी कुछ दिन को। अपने श्रम पर हमें भरोसा, अब क्या चिन्ता करनी है ? दोनों मिलकर काम करेंगे, संकट - सरिता तरनी है।" हरिश्चन्द्र यह रानी का वक्तव्य, श्रवण कर चकित हुए, तारा की पति-भक्ति, शक्ति, कर्तव्य-वृत्ति पर मुदित हुए। "देवी ! तुमने तो साहस की, अन्तिम सीमा पार करी, राज महल की रानी होकर, मजदूरी स्वीकार करी । सहज - दुर्बला, गृहबद्धा, मृदु रमणो जग में मानी है, किन्तु तुम्हारी श्रम सहने की, क्षमता तो लाशानी है। हरिश्चन्द्र तो क्षुधा - तृषा से, पथ - क्लांति से त्रस्त हुआ, अटल धैर्य का दुर्ग तुम्हारा किन्तु न अणु-भर ध्वस्त हुआ।" "देव ! तुम्हारी करुणा है, दासो तो केवल दासी है, धैर्य और यह साहस सब, श्री चरणों का विश्वासी है।
देख आपकी ही दृढ़ता बस, मैंने भी दृढ़ता धारी, नर के स्वीकृत कृति के पथ पर, चलती है जग में नारी।"
धन्य - धन्य तू भारत - माता, धन्य तुम्हारी सन्तति है, कैसी उज्ज्वल क्रान्तिमयो तव, सन्तति की मति सन्मति है । भारत का गौरव भारत की, सन्तति के ही कारण है, भीषण संकट में साहस का, कैसा दृढ़ व्रत-धारग है। स्वर्ण - महल के वासी अब, छोटी - सी कुटिया में रहते, रूखा - सूखा भोजन पाते, मजदूरी के दुःख सहते ।
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