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________________ २ कभी हजारों वषों में ये दिव्य, सत्य हरिश्चन्द्र ज्योतियाँ आती हैं, पाप - तिमिर से भटके जग में, धर्म- रंग चमकाती हैं । हाँ, तो चलते - चलते रवि भी अस्ताचल की ओर ढले, अन्धकार छा गया विपिन में, हिंस्र जन्तु चहुं ओर चले । J राजा - रानी साहस के बल चलते रहे तिमिर में भी, वज्र- प्रकृति के बने हुये हैं, भय न दुःख - गह्वर में भी । बालक रोहित वस्त हो उठा, अतः वृक्ष की छाया में, पत्तों के विस्तर पर सोये, विकट प्रकृति की माया में । हिंसक पशुओं से रक्षा - हित, जगे नरेश्वर बड़ भागी, अपर रात्रि में भूपति सोये, धैर्य मूर्ति रानी जागी । सूर्योदय के होते ही घन अन्धकार डर कर भागा, उज्ज्वल किरणें क्षिति पर फैली सुप्त विश्व- कण-कण जागा । न नित्य क्रिया पाये, संकट में भी राजा - रानी भूल, प्रेम - भक्ति में तन्मय होकर, श्री जिनवर के गुण गाये । गीत जय जिनेश्वर, जय जिनेश्वर, जय जिनेश्वर, जय जिनेश ! जय शुभंकर, जय शिवंकर, जय हितंकर, जय महेश ! - सत्यमय, चिन्मय, अभय, आनन्दमय, वीतरागी, कर्ममल से मुक्त शुद्ध न Jain Education International आपकी तेजोमयी तप शक्ति की चरण - कमलों में झुकाते शोश नित - For Private & Personal Use Only कारुण्यमय, दोष -लेश ! महिमा महान्, सादर सुरेश ! www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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