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कभी हजारों वषों में ये दिव्य,
सत्य हरिश्चन्द्र
ज्योतियाँ आती हैं,
पाप - तिमिर से भटके जग में, धर्म- रंग चमकाती हैं ।
हाँ, तो चलते - चलते रवि भी
अस्ताचल की ओर ढले, अन्धकार छा गया विपिन में, हिंस्र जन्तु चहुं ओर चले ।
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राजा - रानी साहस के बल चलते रहे तिमिर में भी, वज्र- प्रकृति के बने हुये हैं, भय न दुःख - गह्वर में भी ।
बालक रोहित वस्त हो उठा,
अतः वृक्ष की छाया में, पत्तों के विस्तर पर सोये, विकट प्रकृति की माया में ।
हिंसक पशुओं से रक्षा - हित, जगे
नरेश्वर बड़ भागी, अपर रात्रि में भूपति सोये, धैर्य मूर्ति रानी जागी । सूर्योदय के होते ही घन अन्धकार डर कर भागा, उज्ज्वल किरणें क्षिति पर फैली सुप्त विश्व- कण-कण जागा । न नित्य क्रिया पाये,
संकट में भी राजा - रानी भूल,
प्रेम - भक्ति में तन्मय होकर, श्री जिनवर के गुण गाये ।
गीत
जय जिनेश्वर, जय जिनेश्वर, जय जिनेश्वर, जय जिनेश ! जय शुभंकर, जय शिवंकर, जय हितंकर, जय महेश !
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सत्यमय, चिन्मय, अभय, आनन्दमय, वीतरागी, कर्ममल से मुक्त शुद्ध न
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आपकी तेजोमयी तप शक्ति की चरण - कमलों में झुकाते शोश नित
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कारुण्यमय, दोष -लेश !
महिमा महान्,
सादर सुरेश !
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