SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य हरिश्चन्द्र ८९ कौशल का साम्राज्य सुविस्तृत, नित नूतन गड़बड़ होती, कौशिक क्रोध, क्षोभ दिखलाते, और अधिक खड़बड़ होती। नित्य नए गुरु - अभियोगों की, मीमांसा करते - करते, नाकों दम आ जाता ऋषि के, उलझन हल करते - करते । प्रजा - लोक भी ऋषि की अद्भुत, मीमांसा से घबड़ा कर, उच्छृखल, उद्दण्ड तथा अति, उद्धत हुए तंग आ कर । राज्य - कार्य की झंझट से जप - तप में विघ्न लगे पड़ने, क्रमशः ऋषि की आत्म - साधना, लगी प्रपंचों से सड़ने । विश्वामित्र सोचते मन में-"क्या से क्या नाटक बदला ? शुद्ध तपस्वी जीवन आकर, व्यर्थ बना डाला गॅदला ! हरिश्चन्द्र का क्ना बिगड़ा, मिल गया उसे प्रत्युत गौरव, तपस्तेज से भ्रष्ट हुआ मैं, छाया घोर विकट रौरव ? गीत जीवन - ध्येय भुलाया, भुलाया, अरे आज अभिमान ने-ध्र व मन • मन्दिर में घोर अँधेरा, ज्ञान का दीप बुझाया, अरे... जप, तप, संयम, साधन छोड़ा, नाश का जाल बिछाया, अरे... ऋषि मुनियों के उज्ज्वल यश को, ___ कैसा दाग लगाया, अरे. हरिश्चन्द्र का क्या कुछ बिगड़ा, गौरव मैं ही नशाया, अरे... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy