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समान मुक्त स्वर होना ही चाहिए। ताकि सर्व-साधारण धर्म-प्रिय जिज्ञासु जनता भी यथार्थ सत्य का सही-सही मूल्यांकन कर सके ।
मेरा किसी के प्रति द्वेष नहीं है । न किसी के प्रति मन में कोई घृणा है । जो चिन्तन - मनन के अनन्तर मेरे अन्तर्-मन को ठीक लगता है, वह मैं स्पष्ट कह देता हूँ । उक्त स्पष्टता से मेरी निन्दा भी होती है। पर, इसकी मुझे कोई चिन्ता भी नहीं है। खरी बात कहने की सहज आदत है, उस में बनावट जैसा कुछ नहीं है।
बचने की कोशिश करते हुए भी भाषा कभी कुछ कड़वी भी हो जाती है । उसका एक कारण है--मेरी तरुणाई के युग में भारत की आर्य-समाज आदि अनेक धर्म - परम्पराओं में शास्त्रार्थ करने का बहुत अधिक प्रचलन था। जैन-धर्म के ऊपर जब कभी प्रहार होते थे, तो मुझे भी अनेक बार शास्त्रार्थों के मैदान में उतरना पड़ता था और प्रबुद्ध पाठक जानते हैं कि शास्त्रार्थों के वाक् - युद्ध में कभी-कभी शब्दों के व्यंग-बाण भी चलते रहते हैं। यही कारण है कि मेरी भाषा कभी - कभी हठात व्यंगात्मक हो जाती है और वह मेरे प्रेमियों को कटु लग जाती है
सच मुंह से निकल जाता है, कोशिश नहीं करता। शोला हूं भड़कने की,
गुजारिश नहीं करता। उसके लिए मैं हार्दिक खामेमि के सिवा और क्या कर सकता है ?
LAHasir
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डोली यदि सवारी नहीं है तो फिर क्या है वह ? :
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