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से भी रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वष तथा प्राणातिपात आदि जितने भी कर्मादान और आत्मा के पतन के हेतु हैं, उन सबसे निवृत रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, शुद्ध संयमी है, शरीर के मोह - ममत्व से रहित है, वह समण कहलाता है
"एत्थ वि समणे अणिस्सए, अनियाणे, आदाणं च, अतिवायं च, मुसावायं च, बहिद्ध च, कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्जं च, दोसं च इच्चेव जओ जो आदाणं अपणो पदोसहे. तओ तो आादणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सिया दंते दविए वोसटकाए 'समणे' त्ति वुच्चे।"
-सूत्रकृतांग १, १६, २ करुणामूर्ति तथागत बुद्ध ने भी धम्मपद के घम्मट्रवग्ग में 'समण' शब्द के निर्वचन पर कुछ ऐसा ही प्रकाश डाला है
"न मुण्डकेन समणो, अव्वतो अलिकं भणो ।
इच्छालोभसमापन्नो, समणो किं भविस्सति" ॥६॥ -जो व्रतहीन है, जो मिथ्याभाषी है, वह मण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं हो जाता । इच्छा-लोभ से भरा मनुष्य क्या श्रमण बनेगा?
"यो च समेति पापानि, अणु थूलानि सव्वसो।
समितत्ता हि पापानं, 'समणो' त्ति पवुच्चति" ॥१०॥
-जो सब छोटे-बड़े पापों का शमन करता है, उसे पापों का शमनकर्ता होने के कारण से श्रमण कहते हैं ।
भारत की आध्यात्मिक-संस्कृति की साधना का समग्र सार, इस प्रकार श्रम, सम और शम की भावना को अपने में लिए हुए अकेले 'समण' शब्द में अन्तनिहित है। यदि हम इधर-उधर अन्यत्र कहीं न जाकर मात्र एक 'समण' शब्द से ध्वनित होने वाले श्रम, सम एवं शम-भाव को ही अपने विचार एवं आचार में उतार लें, तो व्यक्ति का कल्याण तो होगा ही, व्यक्तिशः विश्व का कल्याण भी हो जाएगा। एक - एक बून्द मिलकर सागर बनता है, और एक-एक व्यक्ति मिलकर समाज तथा विश्व बनता है। अतः एकएक व्यक्ति के कल्याणकारी निर्माण से विश्व-मंगल का निर्माण हो सकता है।
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चिन्तन के झरोखे से।
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