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________________ विवेचना: यह सामायिक सूत्र, वह प्रतिज्ञा सूत्र है, जो नर और नारी आर्हती दीक्षा ग्रहण करते समय, समान रूप में बोलते हैं । मूल जैन - परम्परा के अनुसार साधक को गुरु की ओर से कोई प्रतिज्ञा नहीं कराई जाती। गुरु केवल प्रतिबोध देता है, जगाता है, फिर जागृत शिष्य अपनी शक्ति और अपने देश, काल आदि की परिस्थिति का सम्यक - आकलन कर स्वयं व्रत ग्रहण करता है। गुरु केवल साक्षी के रूप में उपस्थित रहता है, कभी नहीं भी रहता है। यही कारण है कि सूत्र पाठ में सर्वत्र उत्तम पुरुष का प्रयोग है । जैसे कि-'करेमि भंते सामाइयं'--भगवन् ! मैं सामायिक करता हूँ, ऐसा नहीं कि मैं तुझे सामायिक कराता हूँ। सामायिक का निर्वचन : जैन-दीक्षा की साधना का नाम सामायिक है। यह केवल वेष का ही परिवर्तन नहीं है कि सिर मुंडाया, और साधु बन गए। संसार के धरातल पर पैर जमे नहीं, अभावग्रस्त रहे, और अब साधू बन गए, तो दूसरों के कन्धों पर सवार होकर, मोज - मजा उड़ाएँ। जैन-दीक्षा असिधारा व्रत है, तलवार की नंगी धारा पर नृत्य करना है। देखने में जैन भिक्ष के बाह्य क्रिया - काण्ड भी बहुत उग्र हैं, परन्तु अन्दर की भाव - साधना तो सर्वाधिक तीव्र है, वहाँ तो बड़े - से - बड़े लोक वीर भी पराजित हो जाते हैं। तन के क्षेत्र की अपेक्षा मन का क्षेत्र अधिक दुर्गम है। अतः असली विजेता मन का विजेता ही है मनोविजेता जगतो विजेता।' 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'गति' अर्थवाली 'इण्' धातु से 'समय' शब्द बनता है। 'सम्' का अर्थ एकीभाव है, स्व स्वरूप रूप एकत्व भाव है, और 'अय' का अर्थ गति है, गमन है। अस्तु, जो आत्मस्वरूपात्मक एकत्व भाव के द्वारा पर-परिणति से, बहिर्मुखता से वापस मुड़कर स्व-परिणति की ओर, अन्तमुखता की ओर गमन है, उसे 'समय' कहते हैं। समय का भाव 'सामायिक' है। अथवा २४ चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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