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"यो हि तेजो यथाशक्ति न दर्शयति विक्रमात् ।
क्षत्रियो जीविताकांक्षी स्तेन इत्येव तं विदुः ॥" २५ अपने हृदय को इस्पाती अर्थात् सुदृढ़ बनाकर अपने खोये हुए सत्व को प्राप्त कर
" आयसं हृदयं कृत्वा मृगयस्व पुनः स्वकम् ।" सफलता होगी ही, ऐसा मन में विश्वास लेकर निरन्तर विषाद रहित होकर तुझे उठना चाहिए और सजग भाव से ऐश्वर्यशाली सत्कर्म में लग जाना चाहिए
"उत्थातव्यं जागतव्य योक्तव्यं भूतिकर्मसु ।।
भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्ययः ॥" १३५,२६ संजय ! परिपक्व फल वाले वृक्ष के समान जिस पुरुष का आश्रय लेकर सब प्राणी जीविका चलाते हैं, उसी का जीवन सार्थक है।
वीर माता के वीर वचनों से तेजस्वी वाक्बानों से विद्ध होकर संजय का सुप्त वीरत्व जाग उठा । अब वह केवल नाम का ही संजय न रहा, अपितु यथानाम तथागुण के अनुरूप यथार्थ रूप में सजय अर्थात् सम्यक् - विजेता हो गया। वह वीर माता ही थी, जिसने संजय को वीरता के पथ पर साहस के साथ आग्रसर कर अपने राष्ट्र की समुचित रक्षा की और संजय को राज सिंहासन समुपलब्ध कराया।
विदुला का यह उपदेश काफी विस्तृत है । हम यहाँ इसे समेट लेते हैं।
विदुला का यह तेजस्वी प्राणप्रद राष्ट्र गौरव का सन्देश ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि स्वयं कुन्तीजी ने कृष्ण को विदुला के संबंध में विदुला की प्रशंसा करते हुए कहा है
"यशस्विनी मन्युमती कुले जाता विभावरी ॥ १३३,२ क्षत्रधर्मरता दान्ता विदुला दीर्घ दशिनी। विश्रुता राज संसल्स श्रुतवाक्या बहुश्रुता ॥ ३ ॥" विदुला यशस्विनी, तेजस्विनी, मानिनी, जितेन्द्रिय, उत्तमकुलीन, क्षत्रिय धर्म परायण दूरदर्शिनी थी। राजाओं की मंडली अर्थात् सभाओं में उसकी बड़ी विद्वतापूर्ण ख्याति थी। वह अनेक महाभारत युग की दो वीर माताएं :
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