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भी अधिक महाकाल की यात्रा में भी अजर-अमर बनाए हुए है । हम भी यहाँ समयोचित दृष्टि से उस उपाख्यान के कुछ अंश जिज्ञासु पाठकों के हितार्थ उदात्त संस्कारों के निर्माण की दृष्टि से अग्रिम पंक्तियों में उपस्थित कर रहे हैं ।
वीर माता विदुला के राज्य पर सिन्धु देश के नरेश ने आक्रमण किया है । विदुला का पुत्र भोग-विलासी है, अतः वह भोगासक्त होकर एक क्षुद्र कायर की भांति राजप्रासाद में जीवन बिता रहा है । अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए प्रत्याक्रमण के रूप में कुछ भी नहीं कर रहा है । तेजोमूर्ति विदुला के लिए यह सब असह्य है । उसका राष्ट्र प्रेम, पुत्र-प्रेम से आहत नहीं होता है । युद्ध में पुत्र का क्या होगा ? इसकी कुछ भी चिन्ता न करते हुए वह अग्निशिखा के समान जाज्वल्यमान होती हुई पुत्र के समक्ष उपस्थित हो जाती है । और, पुत्र के मृत प्रायः प्राणों में अपनी वाक् - शक्ति की संजीवनी के द्वारा पुत्र की मृत - चेतना को जागृत करती है, और उसके मृत - प्राणों में नव - जीवन का संचार करती है । अंधकाराच्छन्न रात्रि में मानो सूर्य उदित हो गया हो, ऐसा दृश्य उपस्थित हो जाता है । पुत्र साहस के साथ "युद्धाय कृत निश्चयः” होकर अपने राष्ट्र की मुक्ति के लिए सहसा एक महान् राष्ट्र भक्त वीर की भांति खड़ा हो जाता है ।
विदुला ने कहा है- पुत्र ! तू मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है, फिर भी मुझे आनन्दित करने वाला नहीं है । तू तो शत्रुओं को ही आनन्दित करनेवाला है । उनका ही हर्ष बढ़ाने वाला है
"अनन्दन मया जात द्विष्यतां हर्षवर्धन ।” १३३,५
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तू क्षोभहीन है, तेरी क्षत्रियों में कोई गणना नहीं है, तू नोम मात्र का पुरुष है, साहसहीन मन आदि की दृष्टि से तो तू तत्त्वतः नपुंसक है । क्या अपने समग्र जीवन के लिए निराश हो चुका है ? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है । शौर्य के साथ खड़ा हो जा और राष्ट्र के कल्याण हेतु क्षत्रियोचित कर्तव्य का भार वहन कर
"निर्मन्युश्चाप्यसंख्येयः पुरुषः क्लीबसाधनः । यावज्जीवं निराशोऽसि
महाभारत युग की दो वीर माताएँ !
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कल्याणाय धुरंवह ||६|| "
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